बुधवार, 18 अगस्त 2021

तीर्थ यात्रा करें तो उसका फल भी पूरा प्राप्त करें -- 2

 एक बार 1987 में श्रीवृज मण्डल परिक्रमा चल रही थी। उसमें श्रील गुरूदेव ॐ विष्णुपाद 108 श्रीश्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी सभी भक्तों के साथ थे। संकीर्तन के साथ सभी संन्यासियों, गृहस्थों, ब्रह्मचारियों, स्त्रियों, पुरुषों, बच्चों को सभी दर्शनीय स्थलों पर लेजाकर उन्हें दर्शन करवा रहे थे। कई जगहों पर रहने की व्यवस्था की गई थी, जैसे मथुरा, गोवर्धन, नन्द गाँव, कोसी, बरसाना आदि।

बात उन दिनों की है, जब परिक्रमा गोकुल महावन पहुँची। वहाँ पर भी श्रील गुरू महाराज जी सभी भक्तों को लेकर संकीर्तन करते हुए दर्शनीय स्थलों पर ले गये। श्रीकृष्ण ने जहाँ माटी खायी थी, फिर वो स्थान जहाँ पूतना गिरी थी, माता यशोदा ने जहाँ ऊखल से बाँधा था, श्रीनन्द भवन, श्रीरमणरेती, आदि के दर्शन करवाये।

एक दिन सारे बृज वासियों को मठ में आमन्त्रित किया गया और सभी को तृप्ति के साथ भगवद् प्रसाद खिलाया गया।

उस दिन सभी वृजवासी आये, संकीर्तन हुआ, प्रवचन हुए, आरती हुई, प्रसाद वितरण भी हुआ।

इसी दिन कुछ भक्त लोग आस-पास के क्षेत्रों जैसे दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, आदि से आये।  चूंकि उन्होंने पहले दर्शन नहीं किये थे और उस दिन परिक्रमा पार्टी तो कहीं जानी नहीं थी, तो उन्होंने सोचा कि क्यों न हम स्वयं ही दर्शन कर आते हैं। इस प्रकार वे सभी उन-उन स्थानों के दर्शन के लिए चले गये, जिनके दर्शन श्रील गुरु महाराज जी ने 1-2 दिन पहले ही करवाए थे।

वे रावल, दाऊ जी आदि स्थानों पर भी गये। आते-आते शाम हो गई। संध्या आरती के बाद श्रील गुरूदेव प्रसाद बाँटते थे। उस समय तक ये भक्त लोग भी आ चुके थे। उन सबको एक साथ देखकर गुरूजी ने बोला-- दिन में आप लोगों को देखा नहीं? (क्योंकि वे सुबह के प्रोग्राम में थे ही नहीं)

उन्होंने बहुत उत्साह से बताया-- महाराज! हम दर्शन करने चले गये थे। (उन्होंने फिर सारे स्थानों के नाम गिना दिये)।

श्रील गुरुमहाराज जी ने कहा - दर्शन करने? ऐसी तीर्थ यात्रा का क्या फायदा? हमारे श्रील नरोत्तम ठाकुर जी ने कहा है-- 'तीर्थ यात्रा परिश्रम, केवल मनेर भ्रम'। ये जो तीर्थ यात्रा है, केवल परिश्रम है। ये केवल मन का भ्रम है कि मैं वहाँ गया, मैंने वहाँ के दर्शन किये। जितनी भी सिद्धियाँ हैं वे तो केवल भगवान के श्रीचरणों में हैं, उनकी हरिकथा-कीर्तन में हैं।

फिर श्रील गुरूदेव मुस्कुराये और कुछ देर बातचीत के बाद प्रसाद दे दिया।

जब सब बाहर आ गये, तो यह खुसर-फुसर शुरु हो गई कि हमने क्या गलत किया जो हमें गुरूजी ने ऐसा कहा?

हम तो उन्हीं स्थानों पर गये, जहाँ गुरूजी स्वयं भक्तों को ले गये थे? अगर यह तीर्थ यात्रा परिश्रम है, तो फिर एक महीने की वृज मण्डल परिक्रमा का अयोजन क्यो? आदि, चर्चा होने लगी।

सब ये सोच रहे थे कि गुरू जी ने ऐसा बोला क्यों? बहुत चर्चा के बाद पता चल ही गया कि आखीर गलती हुई कहाँ? पहली गलती यह थी कि जो भक्त लोग दर्शन करने गये थे वे गुरू जी की आज्ञा लिये बिना ही चले गये। सद्गुरू के पास आये हो, तो उनकी आज्ञा के अनु्सार काम करेंगे, तभी तो भक्ति होगी। दूसरी बात, वे लोग दोपहर में जो गुरूजी की हरिकथा, अन्य महात्माओं की हरिकथा को छोड़ कर दर्शन करने के लिए गये थे यह  भी ठीक नहीं हुआ। वे महत्वपूर्ण कथा-कीर्तन छोड़ कर गये थे। कथा-कीर्तन छोड़ कर अगर हम तीर्थ यात्रा पर जाते हैं तो पुण्य तो मिलेगा भक्ति नहीं। 

तीर्थ यात्रा अपना फल देती है अगर कीर्तन के साथ वैष्णव आनुगत्य में की जाये। 


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