जीव स्वरूप से भगवान का नित्य दास है। जीवात्मा को परमात्मा अर्थात् भगवान की नित्य सेवा चाहिए। नित्य दास का मतलब जीवात्मा हमेशा भगवान की सेवा करना चाहता है, उनकी प्रीति-विधान करना चाहता है। उनको प्रसन्न करना चाहता है और मोक्ष उसे भगवान की सेवा करने से रोक देता है।
ज्योती में ज्योत समाना अर्थात् हमेशा के लिए भगवान की सेवा से वंचित हो जाना। ब्रह्म-लीन अथवा परमात्म-लीन होने से असंख्य जीव भगवान के दर्शन से वंचित हो जाते हैं। भगवान की नित्य सेवा, भगवान की संगति से वंचित हो जाते हैं।
एक वैष्णव संन्यासी बताते हैं कि गोपियाँ घड़ों में पानी लेने के लिए जा रही हैं, यमुना जी में। गोपियाँ पानी लेने के लिए जा रही हैं, वहाँ यमुना जी के तट पर ऐसा दृश्य है कि कुछ गोपियाँ पानी भर रही हैं, कुछ पानी भर चुकी हैं, कुछ पानी भरने वाली हैं, आदि। इस प्रकार से बहुत सी गोपियाँ इकट्ठी हो गयी। बात-चीत होने लगी।
बात-चीत करते-करते एक गोपी बोलती है - सखी कहाँ ध्यान है हम सब का?
दूसरी गोपी - क्यों क्या हो गया?पहली गोपी - जब हम आये थे तो सूर्योदय हो रहा था और इस समय सूरज सिर के ऊपर आ गया। दोपहर हो गई है।
अन्य गोपी -- अरी हाँ। हमें तो पता ही नहीं लगा। बातों ही बातों में यह 3-4 घंटे बीत गये, पता ही नहीं लगा।
गोपी - देखो कृष्ण की चर्चा में कितना आनन्द है। हमें यहाँ खड़े-खड़े 3-4 घंटे हो गये हैं, सिर पर मटके उठाये हैं, समय का ही पता नहीं चला। किसी ने खाली घड़े पकड़ रखे हैं और हमें भान ही नहीं है।
अन्य गोपी - कितना आनन्द है न, कृष्ण चर्चा में।
गोपी -- मुझे बड़ा तरस आता है, उन पर, जो कृष्ण भजन नहीं करते हैं। वे संसार के कष्टों में और अन्य कामों में व्यस्त रहते हैं। उसी में उलझे रहते हैं।
मुझे बहुत तरस आता है उन पर।
अन्य गोपी -- नहीं, मुझे तो उन पर ज्यादा तरस नहीं आता है क्योंकि कभी न कभी उन्हें सद्गुरू मिलेंगे, भक्त मिलेंगे और वो भजन करने लगेंगे। किन्तु मुझे तो उन पर ज्यादा तरस आता है, जिन्होंने यह सुनहरा अवसर हाथों से गँवा दिया। जिनकी मृत्यु हो गई है। वे तो 85 लाख योनियों के चक्रों में फंस गये होंगे।
अन्य गोपी -- नहीं, नहीं मुझे तो उन पर इतना तरस नहीं आ रहा क्योंकि 84 के बाद उनको मनुष्य जन्म तो मिल ही जायेगा और उन्हें उस जन्म में शुद्ध भक्त का संग हो जायेगा। वैष्णव मिलेंगे और वो हमारी तरह कृष्ण चर्चा का आनन्द ले सकेंगे। मुझे तो ज्यादा तरस आता है उन पर जो ज्योती में ज्योत समा गये हैं। ब्रह्म लीन हो गये हैं, परमात्म सायुज्य जिन्हें मिल गया है, जिन्हें मोक्ष मिल गया है। उनका क्या होगा? उनका तो आगे बढ़ने का कोई अवसर ही नहीं है।
इसी बात को नारद गोस्वामी जी ने अपने शिष्य श्रील व्यास देव जी को कहा था कि जीवात्मा तो भगवान की सेवा के लिए तड़पता है। भगवान की सेबा में ही उसे परम-शान्ति का अनुभव होता है।
तब श्रील व्यास जी ने पूछा कि क्या करूँ?
श्रील नारद गोस्वामी जी ने कहा -- सबसे बढ़िया सेवा होती है, श्रीकृष्ण का कीर्तन्। श्रीकृष्ण की महिमा का कीर्तन करो। उनकी महिमा बताओ। यही सर्वोत्तम भक्ति है। इसे श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए करना।
श्रील व्यास देव - मैंने तो श्रीकृष्ण की महिमा का कीर्तन किया है! उनकी महिमा लिखी है। तमाम पुराणों में, महाभारत में श्रीकृष्ण की महिमा लिखी है।
श्रील नारद गोस्वामी जी -- नहीं उससे नहीं होगा। आपने महाभारत में जो श्रीकृष्ण कीर्तन किया, श्रीकृष्ण महिमा लिखी , वो मोक्ष प्रकरण में किया।
(नारद जी ऐसे भक्त हैं जिन्होंने ध्रुव जी, प्रह्लाद जी जैसे भक्ति बालकों को भगवान के दर्शन करवा दिये)।
श्रील व्यास देव -- क्या जो मैंने लिखा इससे होगा नहीं? श्रील नारद -- नहीं! आपने श्रीकृष्ण महिमा तो बोली है किन्तु उसका उद्देश्य मोक्ष है। इससे नहीं होगा। श्रीकृष्ण की महिमा श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए बोलो। किसी कामना-वासना की पूर्ति के लिए नहीं। संसार के दुःखों से बचने के लिए नहीं। श्रीकृष्ण की महिमा बोलो श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए।
श्रील व्यास देव (हाथ जोड़ कर) -- गुरूजी! यह किसी और से करवायें। यह तो मेरे से नहीं होगा।
श्रील नारद गोस्वामी -- नहीं यह तुम्हें ही करना होगा। क्योंकि इस समय समाज में आप प्रतिष्ठित हो गये हो। कोई दूसरा अगर इसे बोलेगा, तुम से अच्छा भी बोलेगा, बिल्कुल ठीक भी बोलेगा तो भी लोग यही सोचेंगे कि नहिं-नहिं यह ठीक नहीं है क्योकि हमारे व्यास जी ने तो ऐसा लिखा ही नहीं है। इसलिए आपको बोलना होगा। यह भी बताना होगा कि पहले मैंने क्या किया था और अब मैं क्या कर रहा हूँ।
श्रीमद् भागवत की रचना के बाद श्रील व्यास देव जी को परम शान्ति का अनुभव हुआ।
(इसलिए जब आप श्रीमद् भागवत खोलेंगे, तो पहले स्कन्ध में है कि जिन्होंने मोक्ष-काम आदि को छोड़ दिया है, वे श्रीमद् भागवतम् के रसास्वादन के लिए आगे आ जायें। वहीं पर श्रील व्यास जी बताया कि अब तक मैंने जो ग्रन्थ लिखे थे, वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिखे थे। अब मैं श्रीकृष्ण प्रीति के लिए लिख रहा हूँ। )
यह लीला करके, श्रीव्यास देव जी ने बताया कि जब तक श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए श्रीकृष्ण कीर्तन नहीं करोगे, तब तक जीवन में परम शान्ति नहीं मिलेगी।
महाभारत, पुराण, गीता, आदि सभी श्रील व्यास देव जी ने ही हमको दिये हैं, उनका अन्तिम उपहार है -- श्रीमद् भागवत पुराण । यह सर्वोत्तम ग्रन्थ है। जैसे नदियों में गंगा जी श्रेष्ठ हैं, वैष्णविं में महादेव जी परम वैष्णव है, ऐसे ही सारे ग्रन्थों में श्री भागवत सर्वोतत्म है।
परम शान्ति का उपाय ह श्रीकृष्ण की महिमा का कीर्तन करना और शान्ति का उपाय है दूसरों को सुखी करना।
बोये बीज बबूल के तो ………………आम कहाँ से होय………………………
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें