गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

शुभ कार्य को टालना नहीं चाहिये

एक महान वैष्णव आचार्य भक्ति विनोद ठाकुर जी ने शरणागत भक्त के  हृदय के भावों को लिखा -- 

मारोबी राखोबी, जो इच्छा तोहारा……
हे भगवन्! आप मुझे रखो चाहे मारो, मैं कुछ नहीं बोलूँगा। ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है, शरणागत भक्त्। मृत्यु, कंग़ाली, बेइजजती, बिमारी आदि से कोई भय नहीं होता उसे।  बहुत पैसा मिले, दीर्घ जीवन मिले, बहुत सम्मान मिले तो भी ठीक और अगर नहीं मिले तो भी ठीक। शरणागत भक्त का एक ही भाव होता है कि मैं वो क्या क्रिया करूँ कि जिससे मेरे ठाकुर प्रसन्न रहें। 24 घंटे इसी भाव में डूबकर भक्ति के अनुकूल कार्यों को, भगवान कि प्रसन्नता के अनुकूल कार्यों को करता रहता है और भक्ति के प्रतिकूल कार्यों को करता ही नहिं, बल्कि उनके लिये भाव उठे तो उसे भी तिरस्कार कर देता है।  

कभी-कभी पुराने संस्कार वश मन में तो भाव आ सकते हैं, उनको वो टाल देताहै, हटा देता है। 

भगवान श्रीरामचन्द्र के बाण से जब रावण ज़मीन पर गिर गया तो भगवान श्रीराम ने श्रीलक्ष्मण को बोला - रावण बहुत ज्ञानी है, इसका प्रशासन बहुत अच्छा रहा है क्योंकि इसने अपने राज्य को बहुत समृद्ध रखा था। इससे कुछ ज्ञान लिया जाना चाहिये। हमारे पूज्य हैं, हमारे पिताजी, दादाजी आदि की उम्र से भी ज्यादा उम्र के हैं, तो जाओ कुछ शिक्षा लेकर आओ। 
बड़े भाई की आज्ञा से गये, प्रणाम किया व कहा --- मैं श्रीराम का अनुज लक्ष्मण आपसे कुछ शिक्षा लेने आया हूँ। रावण कुछ नहीं बोला। चुपचाप लेटा रहा। श्रीलक्ष्मण ने दो-तीन बार प्रार्थना की, लेकिन  रावण कुछ नहीं बोला।  

श्रीलक्ष्मण वापिस लौट गये और श्रीराम से कहा --- आप क्या बात कर रहे हैं, वो हमें उपदेश-निर्देश देगा? जिसके सारे वंश को खत्म कर दिया, अपने आप को जो इतना शक्तिशाली मानता था, देवता उससे डरते थे, वो हमारे विरुद्ध बहुत कुछ सोचता होगा। 

भगवान श्रीराम ने कहा -- ज्ञानी, ऐसा नहीं करते, चलो मैं भी चलता हूँ।  

भगवान श्रीराम गये, उन्होंने हाथ जोड़े और कहा -- राजा दशरथ के पुत्र मैं और मेरा अनुज लक्ष्मण आपके सामने आपको हाथ जोड़कर अभिवादन करते हैं और आपसे कुछ ज्ञान प्राप्ति कि इच्छा रखते हैं। हमें कुछ उपदेश दीजिये। 

रावण हल्का सा मुस्कुराया व बोला -- लक्षमण ये है ज्ञान लेने का तरीका। मैं जानता हूँ श्रीराम परब्रह्म हैं। परब्रह्म होते हुये भी देखो वो किस तरह मेरे पैरों की ओर खड़े हैं। ज्ञान लेने के लिये झुकना होता है। तुम मेरे सिरहाने पर खड़े होकर बोल रहे थे। श्रीराम! आपको मैं क्या ज्ञान दूँ? आप तो ज्ञान के भण्डार हैं। फिर भी आपको अपना अनुभव मैं बताता हूँ। वहाँ पर बहुत सी बातें उसने बोलीं, उनमें कुछ बात यह है मैं इतना शक्तिशाली था कि देवता मेरे अधीन कार्य करते थे। ग्रह मेरे घर में पानी भरते थे। मैंने एक दिन सोचा कि लंका वासियों के लिये और अच्छा करते हैं। क्या करूँ? मैं कुछ ऐसा करता हूँ कि यहाँ से स्वर्ग तक सीढ़ियाँ बना देता हूँ ताकि अगर उनकी घूमने कि इच्छा हो तो वे स्वर्ग में रह के आये, हो कर आये, मैं ये कर सकता था क्योंकि सारे देवता मेरे अधीन थे और जिन दिनों मैं ये सोच रहा था कि मैं यह करूँ, उन दिनों श्रीराम आपने मेरी बहिन के नाक-कान कटवा दिये तो वो रोते-रोते आयी और बोली भैया! ये मेरी नहीं आपकी नाक कटी है, मैं तो तिलमिला गया। मुझे गुस्सा आ गया। उसने सारी बात बताई तो मैंने कहा जिन्होंने मेरी बहिन की नाक काटी है उनकी स्त्री को उठा कर ले आऊँगा। और मैं सीताजी को ले आया, उसका परिणाम आप देख ही रहे हो। 

लक्ष्मण मैं यह कहना चाहता हूँ कि मेरे मन में बड़े ही अच्छा कार्य करने की इच्छा थी, स्वर्ग तक मार्ग बनाने की, सीढ़ी बनाने की। किन्तु मैं दूसरे की पत्नी को उठा कर ले आया। मैंने अच्छे कार्य को टाल दिया और बुरा कार्य करने चल दिया। परिणाम ये है। मेरा अनुभव है कि शुभ कार्य को टालना नहीं चाहिये, अच्छा कोई विचार मन में आ जाये, कोई बात मन में आ जाये, तो उसे शीघ्रता से कर देना चाहिये, बुरे विचार को टाल देना चाहिये। 

भक्त यही करता है, भक्ति के अनुकूल कार्यों को करता है और प्रतिकूल भाव को टालता है।

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