गुरुवार, 19 सितंबर 2019

साधुं का संग क्यों करना चाहिये?

हर ग्रन्थ में साधु संग की महिमा लिखी है। कहते हैं लव मात्र, पलक झपकने के समय का भी सच्चे संतों का संग अगर जीवन में हो जाता है तो सर्व सिद्धियां मिल जाती हैं। हमारे आचार्यों ने तो सर्व-सिद्धि का अर्थ भगवान गोविन्द के श्रीचरणों की प्राप्ति बताया है। ……श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी बताते हैं कि कभी-कभी क्या होता है  जब सत्संग में हम बैठते हैं सन्तों के पास तो ऐसी बात पता लगती है कि उतर मिल जाता है। 

जैसे एक बार वृन्दावन से कुछ भक्त लोग आ रहे थे, और उन्होंने दिल्ली जाता था। यमुना एक्स्प्रेस पर गाड़ी ले ली और दिल्ली की ओर दौड़ा दी क्योंकि उन्हें दिल्ली में ट्रेन पकड़नी थी। गाड़ी को दौड़ा रहे थे कि जल्दी से दिल्ली पहुँचूं। बाकी लोग बातें कर रहे थे…। काफी दूर जाकर एक मील-पत्थर आया और पर उस पर नज़र पढ़ी जिस पर लिखा था 'आगरा 40 किलोमीटर' … वो कहने कि यहक्या लिखा था? आगरा 40 किलोमीटर कैसे हो सकता है? बाद में पता चला कि वृन्दावन से जब वो निकले तो यमुना एक्स्प्रेस वे पर गाड़ी दिल्ली की ओर मोड़ने की बजाय आगरा की ओर मोड़ दी। बिना जाने वो गाड़ी को आगरा की ओर दौड़ा रहे थे, दिल्ली से विपरीत दिशा में। थोड़े से समय में ही सारी बात बदल गई। उन्हें पता चल गया कि वे गलत दिशा मेंजा रहे हैं। अतः गाड़ी वापिस मोड़ ली। पलक झपकने की देरी में ही मील पत्थर पढ़ा और दिशा बदल ली, नहीं तो सीधा दौड़ते जा रहे थे। ऐसे ही जीवन में संतों से जो ज्ञान मिल जाता है, उनकी अनुभूति से जो कुछ शिक्षा मिल जाती है, रहस्य पता चल जाते हैं, उससे जीवन ही बदल जाता है। 

श्रीप्रह्लाद जी बता रहे हैं…घर में बैठ कर, भक्तों से महिमा सुनना, बोलना, समरण करना……भक्ति नहीं है जब तक शरणागति नहीं होती, कि मैं भगवान का हूँ। भगवान का होकर, भगवान की प्रसन्नता के लिये जब मैं हरिकथा श्रवण करुँगा, उनका होकर जब मैं कीर्तन करूँगा तो ही कीर्तन भक्ति अथवा श्रवण भक्ति होगी।


लेकिन संसार का होकर, भगवान के नामों का कीर्तन करूँगा, संसार का होकर श्रवण करूँगा, तो वो भक्ति नहीं होगी, वो होगा पुण्य या सुकृति। 

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