निस्सन्देह, प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर का दर्शन करना चाहता है।
किन्तु योग्य होने तथा पूर्णज्ञान प्राप्त करने पर ही ईश्वर दिखते हैं।
हम ईश्वर को अपने समक्ष वैसे ही देख सकते हैं जिस तरह एक दूसरे को देखते हैं, किन्तु इसके लिए योग्यता चाहिए। और कृष्णभावनामृत ही यह योग्यता है।
श्रीकृष्णभावनामृत,
-- श्रवणम् से, जिसमें भगवद्गीता तथा वैदिक साहित्य के माध्यम से श्रीकृष्ण के विषय में सुनना होता है......
तथा......
-- कीर्तनम् से अर्थात् हमने जो कुछ सुना है उसे दुहराने से.....
तथा.....
-- श्रीकृष्ण के नामों के कीर्तन से.......
.............................. .............................. ................प्रारम्भ होता है।
श्रीकृष्ण के कीर्तन तथा श्रवण से हम सचमुच ही उनका साथ दे सकते हैं, क्योंकि वे अपने नामों, गुणों, रूपों तथा लीलाओं से अभिन्न हैं।
ज्यों-ज्यों हम श्रीकृष्ण से सम्बन्ध स्थापित करते हैं, त्योंं-त्यों वे अपने-आप (श्रीकृष्ण) को समझने में सहायता देते हैं और ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का अन्धकार दूर करते हैं।
श्रीकृष्ण हमारे हृदयों में स्थित होकर गुरु की भाँति कार्य करते हैं। जब हम उनकी कथायें सुनने लगते हैं तो हमारे मनों में अनेकों वर्ष की एकत्र हुई भौतिक कल्मष की धूल क्रमशः स्वच्छ होने लगती है।
श्रीकृष्ण सबके मित्र हैं, किन्तु अपने भक्तों के विशेष रुप से। ज्योंहि हम उनकी ओर थोड़ा उन्मुख होते हैं, वे हमारे भीतर से अनुकूल आदेश देना प्रारम्भ कर देते हैं जिससे हम धीरे-धीरे उन्न्ति कर सकें।
श्रीकृष्ण प्रथम गुरु हैं तथा जब हमारी रुचि उनके प्रति बढ़ जाती है तो हमें किसी साधु या पवित्र व्यक्ति के पास जाना पड़ता है जो बाहर से गुरु का कार्य करता है।
-- श्रील भक्ति वेदान्त स्वामी महाराज जी। (संस्थापक - इस्कान)
किन्तु योग्य होने तथा पूर्णज्ञान प्राप्त करने पर ही ईश्वर दिखते हैं।
हम ईश्वर को अपने समक्ष वैसे ही देख सकते हैं जिस तरह एक दूसरे को देखते हैं, किन्तु इसके लिए योग्यता चाहिए। और कृष्णभावनामृत ही यह योग्यता है।
श्रीकृष्णभावनामृत,
-- श्रवणम् से, जिसमें भगवद्गीता तथा वैदिक साहित्य के माध्यम से श्रीकृष्ण के विषय में सुनना होता है......
तथा......
-- कीर्तनम् से अर्थात् हमने जो कुछ सुना है उसे दुहराने से.....
तथा.....
-- श्रीकृष्ण के नामों के कीर्तन से.......
..............................
श्रीकृष्ण के कीर्तन तथा श्रवण से हम सचमुच ही उनका साथ दे सकते हैं, क्योंकि वे अपने नामों, गुणों, रूपों तथा लीलाओं से अभिन्न हैं।
ज्यों-ज्यों हम श्रीकृष्ण से सम्बन्ध स्थापित करते हैं, त्योंं-त्यों वे अपने-आप (श्रीकृष्ण) को समझने में सहायता देते हैं और ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का अन्धकार दूर करते हैं।
श्रीकृष्ण हमारे हृदयों में स्थित होकर गुरु की भाँति कार्य करते हैं। जब हम उनकी कथायें सुनने लगते हैं तो हमारे मनों में अनेकों वर्ष की एकत्र हुई भौतिक कल्मष की धूल क्रमशः स्वच्छ होने लगती है।
श्रीकृष्ण सबके मित्र हैं, किन्तु अपने भक्तों के विशेष रुप से। ज्योंहि हम उनकी ओर थोड़ा उन्मुख होते हैं, वे हमारे भीतर से अनुकूल आदेश देना प्रारम्भ कर देते हैं जिससे हम धीरे-धीरे उन्न्ति कर सकें।
श्रीकृष्ण प्रथम गुरु हैं तथा जब हमारी रुचि उनके प्रति बढ़ जाती है तो हमें किसी साधु या पवित्र व्यक्ति के पास जाना पड़ता है जो बाहर से गुरु का कार्य करता है।
-- श्रील भक्ति वेदान्त स्वामी महाराज जी। (संस्थापक - इस्कान)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें