

राजा प्रतापरुद्र ने जाने के पथ पर अनेक प्रकार से सहायता की।
चित्रोत्पल नदी पार होने पर श्रीराय रामानन्द, महाराज प्रतापरुद्र और
हरिचन्दन, श्रीमहाप्रभु के साथ चल पड़े।
भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी का विच्छेद सहन न कर सकने के कारण श्रीगदाधर पण्डित भी श्रीमहाप्रभु जी के साथ चल पड़े। तब श्रीमहाप्रभु जी ने आपको अपना क्षेत्र संन्यास व्रत छोड़ने के लिए मना किया।
इसके जवाब में श्रीगदाधर पण्डित जी, श्रीमहाप्रभु जी से बोले, 'जहाँ आप हैं, वहीं पुरुषोत्तम धाम (नीलाचल) है । जहाँ तक क्षेत्र संन्यास की बात है -- भाड़ में जाये मेरा क्षेत्र संन्यास्।'
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श्रीमन्महाप्रभु जी ने पुनः श्रीगोपीनाथ जी की सेवा छोड़ने को निषेध किया तो पण्डित जी बोले, 'आपके पादपद्मों के दर्शनों से ही करोड़ों गोपीनाथों की सेवा हो जायेगी।'
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आपको कोई कष्ट नहीं दूँगा।'
श्रीगदाधर जी की अद्भुत श्रीगौरांग प्रीति को समझने की श्रीमन्महाप्रभु जी के अंतरंग पार्षदों के अतिरिक्त और किसी की सामर्थ्य नहीं है। राग मार्ग का प्रेम आसानी से समझ में नहीं आता। श्रीगदाधर जी महाप्रभु जी के लिए अपनी प्रतिज्ञा, कृष्ण-सेवा, सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार हैं।
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कटक में पहुँचने के पश्चात् श्रीमहाप्रभु जी ने श्रीगदाधर पण्डित को बुला कर कहा कि ये तो निश्चय हो गया कि तुम अपना उद्देश्य, प्रतिज्ञा और सेवा छोड़ दोगे तथा मेरे साथ चलने में तुम्हें सुख होता है किन्तु ये बताओ कि तुम मेरा सुख चाहते हो कि अपना सुख चाहते हो? यदि मेरा सुख चाहो तो नीलाचल वापिस चले जाओ। और अब यदि कोई बात बोली तो तुम्हें मेरी शपथ।
श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी अपनी रचना 'श्रीगौर पार्षद एवं गौड़ीय वैष्णव-आचार्यों के संक्षिप्त जीवन चरित्र' में बताते हैं की श्रीकृष्ण लीला में जो श्रीमती राधा जी हैं, गौर-लीला में वे ही श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी हैं।
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श्रील गदाधर पण्डित गोस्वामी जी की जय !!!!!!!
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