वर्तमान समय में जितने भी समाज, धर्म, मत, विचार, इत्यादि प्रचलित हैं, सभी एक ही बात कहते हैं कि भगवान एक हैं, हम सब उनके बच्चे हैं और हमें उनकी सेवा-आराधना करनी चाहिये। यह सिद्धान्त एक होने पर भी हम देखते हैं कि अधिकतर लोगों का आपस में मतभेद है। इसका कारण यह है कि कहने को तो सभी, उपरोक्त शिक्षा का ही प्रचार करते हैं, किन्तु न तो इस शिक्षा को मानते हैं और न ही जीवन में ढालते हैं। इसी कारण से सारा समाज जातिवाद, धर्मवाद, देशवाद, भाषावाद में बंटा है। हर कोई अपने को एक-दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने में जुटा है। वास्तविकता तो यह है कि श्रेष्ठ तो केवल भगवान हैं और सर्वश्रेष्ठ धर्म भगवान की सेवा है।
अगर यह बात सभी अपने जीवन में ढालें तो आपस में कभी टकराव नहीं होगा, हिंसा नहीं होगी, झगड़ा नहीं होगा। चारों ओर अमन-शान्ति होगी।
जैसे, एक केन्द्र-बिन्दु से एक वृत्त (circle), दो वृत्त, तीन वृत्त (अलग अलग आकार के) बनायें तो वे आपस में टकरायेंगे नहीं, काटेंगे नहीं। किन्तु अलग-अलग केन्द्र-बिन्दु लेकर बनाये गये वृत्त आपसे में एक-दूसरे को काटेंगे। इसी प्रकार एक परिवार में, एक समाज़ में, एक देश में, अलग-अलग इच्छाओं को लेकर जब संघर्ष होगा तो आपसी झगड़े - तनाव होगा ही, किन्तु जब एक ही मकसद से कोई संघर्ष होगा तो तनाव-झगड़ा होने का मतलब ही नहीं है।
अगर यह बात सभी अपने जीवन में ढालें तो आपस में कभी टकराव नहीं होगा, हिंसा नहीं होगी, झगड़ा नहीं होगा। चारों ओर अमन-शान्ति होगी।
जैसे, एक केन्द्र-बिन्दु से एक वृत्त (circle), दो वृत्त, तीन वृत्त (अलग अलग आकार के) बनायें तो वे आपस में टकरायेंगे नहीं, काटेंगे नहीं। किन्तु अलग-अलग केन्द्र-बिन्दु लेकर बनाये गये वृत्त आपसे में एक-दूसरे को काटेंगे। इसी प्रकार एक परिवार में, एक समाज़ में, एक देश में, अलग-अलग इच्छाओं को लेकर जब संघर्ष होगा तो आपसी झगड़े - तनाव होगा ही, किन्तु जब एक ही मकसद से कोई संघर्ष होगा तो तनाव-झगड़ा होने का मतलब ही नहीं है।
सभी प्राणी एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। क्योंकि सबका एक ही पिता है। जब सभी को इस बात का ज्ञान होगा, एहसास होगा तो इससे आपस में प्रेम - लगाव पनपेगा। प्रेम-पूर्वक व्यवहार से जीवन सुखमय होगा। भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने इसी शिक्षा के ऊपर ज़ोर दिया व प्रचार किया। उन्होंने कहा कि केवल मात्र भगवान के दिव्य प्रेम की अनुभूति से ही हम आपसे में प्रेम-पूर्वक व्यवहार कर सकते हैं व समाज में एकता ला सकते हैं। इससे ही विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है। दिव्य प्रेम की अनुभूति की ओर मार्ग प्रशस्त होता है, इस ज्ञान से -------- कि भगवान से हमारा क्या सम्बन्ध है और सभी प्राणियों से हमारा क्या सम्बन्ध है?
जब हम सभी आपस में सम्बन्धित हैं तो फिर यह इस जाति का है, वो उस मत का है, इत्यादि का कोई औचित्य नहीं रह जाता। इसी बात को दर्शाने के लिये भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी शूद्र जाति के श्री गोविन्द के हाथों से पका भोजन करते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण-प्रेम के सन्देश देने वालों में अग्रणी बनाया -- श्रील हरिदास जी / चाँद काज़ी / पठान बिजली खान, आदि (मुसलमान), श्रील रूप-सनातन-गोपाल भट्ट (ब्राह्मण), श्रील राय रामानन्द (शौक्र करण कुल), श्रीनित्यानन्द जी (अवधूत), राजा प्रतापरुद्र (क्षत्रीय), इत्यादि। यही नहीं क्या संन्यासी (श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी / श्रीप्रबोधानन्द सरस्वती), क्या गृहस्थ (श्रीवास पण्डित / श्रीसार्वभौम भट्टचार्य), क्या ब्रह्मचारी (श्रील गदाधर / श्रील शुक्लाम्बर), इत्यादि सभी आश्रम के भक्तों के माध्यम से यही सन्देश दिया की मनुष्य जन्म की सार्थकता भगवान के प्रति प्रेम को जागृत करने में ही है। इतना ही नहीं उन्होंने जंगल के जानवरों, पशु-पक्षियों, यहाँ तक की वृक्ष-लतायों (जिनके अन्दर भी आत्मा है) -- सभी के कल्याण के लिये उपदेश दिया। एक बार ऐसा भी देखा गया कि चतुर्मास व्रत करने बंगाल से ओड़ीसा आ रहे भक्तों के साथ चल रहे कुत्ते को स्नेह दिया व उससे भी कृष्ण-नाम करवाया व अपने हाथों से प्रसाद खिलाया।
जब हम सभी आपस में सम्बन्धित हैं तो फिर यह इस जाति का है, वो उस मत का है, इत्यादि का कोई औचित्य नहीं रह जाता। इसी बात को दर्शाने के लिये भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी शूद्र जाति के श्री गोविन्द के हाथों से पका भोजन करते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण-प्रेम के सन्देश देने वालों में अग्रणी बनाया -- श्रील हरिदास जी / चाँद काज़ी / पठान बिजली खान, आदि (मुसलमान), श्रील रूप-सनातन-गोपाल भट्ट (ब्राह्मण), श्रील राय रामानन्द (शौक्र करण कुल), श्रीनित्यानन्द जी (अवधूत), राजा प्रतापरुद्र (क्षत्रीय), इत्यादि। यही नहीं क्या संन्यासी (श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी / श्रीप्रबोधानन्द सरस्वती), क्या गृहस्थ (श्रीवास पण्डित / श्रीसार्वभौम भट्टचार्य), क्या ब्रह्मचारी (श्रील गदाधर / श्रील शुक्लाम्बर), इत्यादि सभी आश्रम के भक्तों के माध्यम से यही सन्देश दिया की मनुष्य जन्म की सार्थकता भगवान के प्रति प्रेम को जागृत करने में ही है। इतना ही नहीं उन्होंने जंगल के जानवरों, पशु-पक्षियों, यहाँ तक की वृक्ष-लतायों (जिनके अन्दर भी आत्मा है) -- सभी के कल्याण के लिये उपदेश दिया। एक बार ऐसा भी देखा गया कि चतुर्मास व्रत करने बंगाल से ओड़ीसा आ रहे भक्तों के साथ चल रहे कुत्ते को स्नेह दिया व उससे भी कृष्ण-नाम करवाया व अपने हाथों से प्रसाद खिलाया।
वैसे भी हर मनुष्य किसी न किसी की सेवा ही करता है। कभी गुरु की, कभी अपने मन की, कभी अपने बच्चों की, कभी पत्नी की, कभी आफिस में बास की, कभी माता-पिता की, कभी मित्र की, इत्यादि। चाहे मनुष्य अंहकार-वश यही कहे कि मैं स्वामी हूँ किन्तु गहरे अध्ययन से वह मान पायेगा की वह एक सेवक ही है। और वह सभी कार्य सुख प्राप्ति के लिये करता है। अब जिनकी सेवा वह सुख प्राप्त करने के लिये कर रहा है, जब वे सब स्वयं दु:खी हैं तो सेवक को सुख कैसे देंगे। सुख तो उसी से मिलेगा, जो सुख का भण्डार हैं, सुख के सागर हैं, अर्थात् भगवान्।
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने बताया की वास्तव में हर प्राणी सेवक है, परन्तु सेवक है भगवान का। भगवान को भुलाने के कारण और उनकी सेवा को भूलने के कारण दुःखों से त्रस्त है। भगवान की सेवा करने से ही वह सुखी हो सकता है। उसी सेवा के माध्यम से उसे ज्ञान प्राप्त होगा की उसका भगवान से व अन्य प्राणियों से क्या सम्बन्ध है। और उस ज्ञान प्राप्ति के बाद, भगवान की सेवा करने से दिव्य-प्रेम जागृत होगा।
भगवान के सम्बन्ध के माध्यम से तथा भगवत-प्रेम के प्रीति सम्बन्ध के माध्यम से भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने हमारे परिवार, समाज़ व पूरे विश्व-वासिओं की एकता के लिये जो सूत्र हमें दिया, यह सनातन होने के साथ अद्वितीय भी है। कहने का तात्पर्य श्रीचैतन्य महाप्रभु के श्रीकृष्ण-प्रेम के सिद्धान्त के आधार पर हम अपने हृदयों में, अपने परिवार में, अपने प्रदेश में, देश में व पूरे विश्व में शान्ति का अनुभव कर सकते हैं व दूसरों को नित्य शान्ति का अनुभव करवा सकते हैं।
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने बताया की वास्तव में हर प्राणी सेवक है, परन्तु सेवक है भगवान का। भगवान को भुलाने के कारण और उनकी सेवा को भूलने के कारण दुःखों से त्रस्त है। भगवान की सेवा करने से ही वह सुखी हो सकता है। उसी सेवा के माध्यम से उसे ज्ञान प्राप्त होगा की उसका भगवान से व अन्य प्राणियों से क्या सम्बन्ध है। और उस ज्ञान प्राप्ति के बाद, भगवान की सेवा करने से दिव्य-प्रेम जागृत होगा।
भगवान के सम्बन्ध के माध्यम से तथा भगवत-प्रेम के प्रीति सम्बन्ध के माध्यम से भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने हमारे परिवार, समाज़ व पूरे विश्व-वासिओं की एकता के लिये जो सूत्र हमें दिया, यह सनातन होने के साथ अद्वितीय भी है। कहने का तात्पर्य श्रीचैतन्य महाप्रभु के श्रीकृष्ण-प्रेम के सिद्धान्त के आधार पर हम अपने हृदयों में, अपने परिवार में, अपने प्रदेश में, देश में व पूरे विश्व में शान्ति का अनुभव कर सकते हैं व दूसरों को नित्य शान्ति का अनुभव करवा सकते हैं।
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