गुरुवार, 3 जनवरी 2019

उनका रथ चार अंगुल के स्थान पर चौदह अंग़ुल ऊपर उठ गया होता।

महाभारत के युद्ध की बात है। 14 दिन बीत चुके थे। उस रात को दोनों दल के सैनिक बहुत थक गये थे। अर्जुन ने युद्ध विराम की घोषणा करके सबको वहीं विश्राम करने को कहा तो किसी ने भी विरोध नहीं किया। कोई मुख से भले न कहे, प्रतिपक्ष के सैनिकों के हृदय से अर्जुन के लिये आशीर्वाद ही निकला। प्रथम दिन के प्रभात से भी पूर्व जो युद्ध में आ गये थे, वे पूरे दिन और आधी रात तक युद्ध का कठोर परिश्रम करते-करते अत्यन्त क्लान्त हो गये थे। बहुत आहत हो गये थे। सब वहींं रण-भुमि में जैसे भी बना, सो गये। वह दो घड़ी का विश्राम भी बहुत सुखद लगा।

इतना अथक प्रयास करने पर भी जब आचार्य द्रोण के समीप दुर्योधन उपालम्भ देने पहुँचा तो उसकी कठोर बातें सुनकर आचार्य चिढ़ गये। उन्होंने खरी-खरी सुना दी -- तुम पापी हो, इसलिए तुम्हें सर्वत्र पाप ही दीखता है। पाण्डव पुण्यात्मा हैंं, धर्मपरायण हैं, शीलवान हैं, इसलिए कोई 
सत्पुरुष उन्से स्नेह न करे, यह सम्भव नहीं है। यह स्त्य है कि मेरा उनपर स्नेह है, किन्तु युद्ध में स्नेह नहीं, कर्तव्य प्रधान होता है। युद्ध में भी पाण्डव मेरा सम्मान करते हैं और तुम्हारे लिए मैं प्राण देने को भी प्रस्तुत हूँ तो भी तुम सन्देह करते हो। तुमने पासों के साथ छलपूर्ण क्रीड़ा की तो कुछ सोचा था? हम सब भी तुम्हारा समर्थन करके मारे जायेंगे, यह जानता हूँ। मैंने प्रतिज्ञा की है कि परपक्ष को पराजित करके ही कवच उतारूँगा अन्यथा समरभूमि में सदा को सो जाऊँगा।

दुर्योधन ने देख लिया कि आचार्य बहुत क्रुद्ध हैं। उनसे कुछ कहने से बात बिगड़ेगी ही। वह वहाँ से चला हया। सेना बहुत थोड़ी रह गयी थी। व्यूह बनाया नहीं जा सकता था। फिर भी चन्द्रोदय होने पर पुनः युद्ध चल पड़ा।

द्रोणाचार्य आज अत्यन्त क्रूद्ध थे। वे बहुत आहत थे, थके थे और युद्ध में 
कवच न उतारने का प्रण ले चुके थे। इससे वे सब मर्यादाएँ भूल गये थे। सामान्य सैनिकों के संहार के लिए भी दिव्यास्त्र ही नहीं ब्रह्मास्त्र तक का प्रयोग करने लगे। उनका वेग रोकने के लिये पाण्डवों को वहीं आना पड़ा। आज आचार्य ने युधिष्ठिर तथा अर्जुन के विरुद्ध भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। ये दोनों अस्त्रज्ञ थे, ब्रह्मास्त्र से ब्रह्मास्त्र, इन्होंने शान्त कर दिया, किन्तु द्रोणाचार्य ने महाराज द्रुपद को मार दिया। 

पाण्डव सभी सशंक हो उठे। आचार्य महान् अस्त्रवेत्ता हैं। वे कभी भी पाशुपात, नारायणास्त्र या ऐसा ही कोई अमोघास्त्र उठा सकते हैं। श्रीकृष्ण ने देखा कि उनके आश्रित पाण्डुपुत्र भयभीत हैं। अपने शरणागतों का संकट उन्हें सहय नहीं। उनके जन भय पायें, यह वे भव-भय-भंजन कैसे सह लें? 
आचार्य द्रोण पाण्डवों को नष्ट कर देने का निश्चय कर चुक हैं, यह भी उन सर्वज्ञ ने जान लिया। कोई कितना भी समर्थ हो, श्रीकृष्ण के चरणाश्रितों को नष्ट करने का संकल्प करके वह अपना विनाश ही बुलाता है।
द्रोणाचार्य स्वयं अपने लिये अनर्थ का सृजन करने लगे थे। जो दिव्यास्त्र नहीं जानते थे, उन पर दिव्यास्त्र का प्रयोग करना पाप था, पतन का हेतु था।  श्रीकृष्ण बोले - द्रोणाचार्य ने स्वयं युद्धारम्भ में महाराज युधिष्ठिर से कहा है कि उनके हाथ में धनुष रहते इन्द्रादि देवता भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते। वे शस्त्र त्याग कर दें तभी उनका कोई वध कर सकता है। युद्ध में बहुत अप्रिय समाचार मिलने पर वे धनुष रख देते हैं, यह अपना स्वभाव भी उन्होंने बतलाया है। अतः किसी को जाकर उनसे कहना चाहिये कि अश्व्त्थामा मारा गया। एकमात्र पुत्र आचार्य को अत्यन्त प्रिय है। उसकी मृत्यु की बात सुनकर वे शस्त्र त्याग देंगे।



अर्जुन को यह बात नहीं रुचि लेकिन श्रीकृष्ण की बात का विरोध वे नहीं कर सकते थे। पाण्डवों में कोई नहीं था जो सर्वथा झूठ बोल सकता। भीमसेन ने उपाय निकाला। पाण्डवों के अपने पक्ष में ही थे मालवा के राजा इन्द्रवर्मा। उनके विशाल हाथी का नाम अश्वत्थामा था। भीमसेन ने उसे मार डाला। इतने पर भी बड़े संकोच से लज्जापूर्वक वे आचार्य द्रोण के समीप जाकर कह सके -- अश्वत्थामा मारा गया।

द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा दुर्योधन के साथ दूर दूसरे मोर्चे पर युद्ध कर रहा था। उसकी मृत्यु के समाचार से आचार्य के प्राण सूख गये, किन्तु उनका पुत्र तो अमर है और भीम इतने मन्द स्वर में, इतने संकोच में इतनी बड़ी विजय की घोषणा करने वाले नहीं हैंं, इन्हीं कारणों से आचार्य के मन में सन्देह हो गया। वे धृष्ट्द्युम्न पर प्रचण्ड वेग से आक्रमण करने में जुट गये।

द्रोणाचार्य ने पान्चाल वीरों के विनाश के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। वहाँ वीरों के शव बिछ गये। इससे विश्व में मर्यादा की सुरक्षा पर दृष्टि रखने वाले दिव्य ॠषि उद्विग्न हो उठे। वे सब द्रोण के समक्ष आये व कहा कि तुम्हारा मनुष्य लोक में रहने का समय पूरा हो चुका। अब पाप मत करो।

आचार्य ने भीमसेन की बात सुनी थी। ॠषियों के वचन भी सुने। उनके मरण के लिए ही उत्पन्न धृष्टद्युम्न सम्मुख था। उदास होकर उन्होंने राजा युधिष्ठिर से पूछा -- मेर पुत्र क्या सचमुच मारा गया?

द्रोणाचार्य को विश्वास था की युधिष्ठिर किसी प्रकार झूठ नहीं बोलेंगे। इस समय श्रीकृष्ण अपना रथ युधिष्ठिर के रथ से सटाये बैठे थे। उन्होंने कहा - आपको इस समय द्रोण के क्रोध से अपने पक्ष के वीरों की प्राण रक्षा करनी चाहिए। जो लोग स्वजन-परिवार त्यागकर आपकी सहायता के लिए युद्ध में मर-मिटने को उद्यत हैं, उनकी प्राण-रक्षा के लिए बोला गया झूठ पाप नहीं है। उससे बड़ा पाप है सच के भ्रम में पड़कर उन्हें मृत्युमुख में डाल देना। आचार्य यदि ऐसे ही युद्ध करते रहे तो आधे दिन में ही आपकी पूरी सेना का विनाश कर डालेंगे।

महाराज! आपको सर्वथा मिथ्या नहीं बोलना है। -- भीमसेन ने समीप आकर धीरे से कहा -- अपनी सेना के इन्द्रवर्मा के महागज अश्वत्थामा को मारकर मैंने आचार्य के सम्मुख जाकर कहा कि अश्वत्थामा मारा गया किन्तु मेरी बात पर विश्वास न करके वे आपसे पूछ रहे हैं। अतः आपको भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा स्वीकार कर लेनी चाहिए।

युधिष्ठिर ने हृदय में बहुत व्यथा का अनुभव किया किन्तु श्रीकृष्ण के आदेश को सर्वथा अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता था। उन्होंने उच्च स्वर से कहा -- अश्वत्थामा मारा गया, फिर धीरे से बोले -- किन्तु हाथी।

श्रीकृष्णचन्द्र ने अपना पान्चजन्य शंख अधरों से लगा लिया था। युधिष्ठिर का 'किन्तु हाथी' ये धीरे से बोले गये शब्द उसके भयंकर निनाद में कोई कैसे सुनता।

कहते हैं कि युधिष्ठिर के रथ चक्र उनकी सत्यवादिता के प्रभाव से पृथ्वी से सदा चार अंगुल ऊपर रहते थे। उनके मुख से असत्य निकलते ही वे पृथ्वी से सट गये। 
एक महापुरुष ने इस विषय में लिखा है -- युधिष्ठिर ने सच्चे मन से श्रीकृष्ण की बात स्वीकार कर ली होती तो उनका रथ चार अंगुल के स्थान पर चौदह अंग़ुल ऊपर उठ गया होता।

बात महापुरुष की सच है। युधिष्ठिर ने अपने सत्य को बड़ा माना, उसे महत्ता दी और तब भी उसके साथ छल किया। यदि वे धर्म के परमप्रभु श्रीकृष्ण के आदेश पर आस्था करके बिना हिचके स्पष्ट पालन करते उसका, तो उनकी किन्चित भी धर्म-हानि नहीं होती।

----- श्रीसुदर्शन सिंह चक्र जी के लेखों से।

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