रविवार, 30 सितंबर 2018

……आग, आग, मेरा देह जल रहा है, पानी दो, पानी दो।

जगद्गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी के शिष्य श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज जी एक बार पुरी धाम में रह रहे थे। सर्दियों के दिन थे।

एक रात्री में बहुत छटपटा कर आपने उच्च स्वर से कहा -- आग, आग, मेरा देह जल रहा है, पानी दो, पानी दो।

यह सुनकर समस्त मठवासी आपके पास आये और कहीं भी आग न देखकर कहा -- गुरू महाराज! आग कहाँ है? कुछ दिखाई नहीं दिया।

श्रील महाराज जी ने कहा -- तुम सबको दिखाई नहीं दिया, मैं तो देखता हूँ।


महाराजजी इस प्रकार रात भर आग की जलन से छटपटाते रहे। सुबह चार बजे के बाद महाराजजी की जलन शान्त हुई।  

तब उन्होंने कहा-- देखो मेरे सभी मठों मे तलाश करो, कहीं कुछ अघटन हुआ है। 

आपके कहने के अनुसार खोज-बीन प्रारम्भ हुई। 

कुछ ही समय में पता चला कि कोलकाता बिहाला श्रीमापल्ली मठ के पुजारी रात्री में ठाकुर को शयन करवाकर मन्दिर बन्द करके आया किन्तु अन्दर में मोम-बत्ती नहीं बुझाई। मोम गलने से उसकी आग से श्रीगिरिधारी जी का ढकाहुआ कम्बल जलने लगा और रात्री भर जलता रहा। 
प्रातः मंगला आरती के लिये पुजारी ने जैसे ही मन्दिर का दरवाज़ा खोला, अन्दर से धुँआ उठता देख वो फटाफट अन्दर गया और शीघ्रता से आग को बुझाया। 

यह सुनकर श्रील महाराज जी तुरन्त पुरी से बिहाला आये व श्रीभगवान गिरिधारी का पुनः शीतल जल से महाभिषेक करके असंख्य बार क्षमा माँग कर उनकी सेवा प्रकाश की।

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