सोमवार, 23 जुलाई 2018

आर्थिक और पारमार्थिक धर्म का भेद ।

जब तक धर्म - आचरण (धार्मिक क्रिया)  का उद्देश्य केवल अर्थ अथवा दुनियावी फायदा होता है, तब तक वह धर्म -- अर्थिक कहलाता है। जब वही धर्म (धार्मिक कार्य) परमार्थ को उद्देश्य करता है अर्थात् केवलमात्र गुरू-वैष्णव-भगवान की प्रसन्नता के लिए किया जाये, तब उसका नाम पारमार्थिक धर्म होता है।

आर्थिक धर्म का दूसरा नाम नैतिक धर्म या स्मार्त धर्म भी है। पारमार्थिक धर्म का नाम -- साधन भक्ति है।
नैतिक या स्मार्त-धर्म में जो पूजा, वन्दना, सन्ध्योपासना और भगवद्पूजा आदि ईश्ववर की आराधना देखी जाती है, वह पारमार्थिकी नहीं होती, क्योंकि इन नित्य और नैमितिक आराधनाओं से साधक के जड़-स्वभाव की पुष्टि होती है अथवा सामाजिक उन्नति होती है। इनसे व्यक्ति दुनियावी बन्धनों में और बन्ध जाता है। वे समस्त पूजायें कर्म की श्रेणी में हैं क्योंकि वे अर्थ अथवा दुनियावी फायदे को देकर अपना कार्य पूर्ण कर खत्म हो जाती हैं।
ईश पूजा -- स्मार्त धर्म की दूसरी-दूसरी नीतियों के अन्तर्गत एक नीतिमात्र है। वह नित्य-ईशानुगत्य पारमार्थिक विधि नहीं है। 
जो कर्म केवल जगत के शारीरिक, मानसिक और सामजिक कल्याण करते हैंं, वे कर्म नैतिक हैं। त्रैवर्गिक धर्म में परमेश्वर को तत्वतः अस्वीकार करके भी प्रवृति (चित) का शोधन करने के लिए नैतिक कार्य के रूप में ईश्वर-उपासना की व्यवस्था है। पाश्चात्य देशीय प्रधान नास्तिक का कामटी ने भी चित-शुद्धि के लिए ईश्वर उपासना की व्यवस्था दी है। कर्म मार्ग में जहाँं भी ईश-आराधना देखी जाती है, वे सभी इसी श्रेणी की उपासनायें हैं। 

योग शास्त्र में ईश्वर-प्रणिधान का विधान देखा जाता है। परन्तु उनकी इस ईश्वर-प्रणीधान क्रिया का उद्देश्य योगसिद्धि है। अतः यह ईश्वर-प्रणिधान भी पूर्ववत् कर्म का ही अंग है।
परन्तु भक्ति शास्त्र में जिस वैधी भक्ति की व्यवस्था है, वह पारमार्थिक या विशुद्ध धर्म है। स्थिर चित से विचार करने पर ऐसा पता चलता है कि नैतिक या स्मार्त मत के वैध आर्थिक धर्म और नित्य  ईशानुगत्यरूप वैध पारमार्थिक धर्म में बहुत बड़ा तात्विक भेद है। यह तात्विक भेद क्रिया का आकार-गत भेद नहीं, प्रत्युत चित का निष्ठागत भेद है।

निरीश्वर नैतिक और कर्म प्रिय स्मार्तगण केवल नैतिक निष्ठा को प्रधान मानते हैं तथा वैध आर्थिक धर्म में कटौती पर धर्म, अर्थ और काम तक उसकी सीमा निर्धारित कर उसे त्रैवर्गिक धर्म का नाम देते हैं। वैध पारमार्थिक भक्तजन वैध आर्थिक धर्म के फल----------धर्म, अर्थ और काम में अपवर्ग को और उससे भी आगे निरुपाधिक प्रीतिरूप अफुरन्त अनन्त फल (बिना किसी अभिमान के, भगवान के लिये सहज प्रीति) को जोड़ कर उसकी सीमा बढ़ाकर उसका जो आकार देते हैं, वह स्मार्त धर्म से अवश्य ही पृथक है। 
वास्तव में नैतिक स्मार्त धर्म पारमार्थिक धर्म के क्रोड़ीभूत खण्ड-धर्म विशेष है। वैध-धर्म पूर्णताया लाभ कर जब मुख्य विधि श्रीहरिनाम ग्रहण करता है तो वह पारमार्थिक हो पड़ता है। 

आर्थिक वैध धर्म को उन्नत करने से पारमार्थिक वैध धर्म होता है। ईशानुगत्यरूप जीवन के नित्य धर्म को आर्थिक वैध-धर्म में जोड़ देने से वह आर्थिक वैध-धर्म रूप कली प्रस्फुटित होकर पारमार्थिक वैध धर्म होता है। 

संसार स्थित जीव पारमार्थिक धर्म को स्वीकार करने पर भी उनको वर्णाश्रमगत वैध आर्थिक धर्म त्याग नहीं करता। 
उनका शरीर, मन और समाज वर्णाश्रम धर्म की सहायता से सदैव पुष्ट होता रहेगा। परन्तु शरीर, मन और समाज की पुष्टि से स्वच्छन्दतापूर्वक स्थिर होने पर उसकी आत्मा परमेश्वर की उपासना में नियुक्त होकर नित्यानन्द को प्राप्त होती है।

वैध आर्थिक धर्म को कर्म-काण्ड और वैध पारमार्थिक धर्म को भक्ति अर्थात् साधन भक्ति कहते हैं। इस लिये वैज्ञानिक विचार से गौण विधि रूप कर्म एक पर्व तथा मुख्य विधिरूप भक्ति एक दूसरे पर्व के रूप में दिखलायी पड़ते हैं। 

 -- श्रील भक्ति विनोद ठाकुर (श्रीचैतन्य शिक्षामृत)

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