बुधवार, 18 जुलाई 2018

क्या संन्यास की रीति कल्पित है?

संन्यास की रीति का उद्भव श्रीब्रह्मा ने किया था। इसी संन्यास-पथ का अवलम्बन करके संन्यासी लोग सच्चिदानन्द ब्रह्म को प्राप्त करते हैं तथा सर्वज्ञ होने में समर्थ होते हैं। अतः संन्यास पथ कल्पित नहीं है।

श्रीविष्णु स्मृति (4/2, 10, 12, 18) के अनुसार सांसारिक कामनाओं से विरक्त व्यक्ति को संन्यास ग्रहण करना चाहिए। संन्यास ग्रहण कर उसे अकेला भ्रमण करना चाहिए तथा बिना माँगे ही जो मिल जाये उसी भिक्षा से जीवन निर्वाह करना चाहिए। उसे एकदण्ड अथवा त्रिदण्ड धारण करना चाहिए।
श्रीहारीत स्मृति (6/6 - 8) में संन्यासी के सभी समयों के चिन्ह दिये गये हैं।

महानिर्वाण तन्त्र (8वां उल्लास) के अनुसार कर्मों से विरक्ति होने पर तथा ब्रह्मज्ञान उत्पन्न होने पर अध्यात्म ज्ञान -- भगवद् तत्व में निपुण व्यक्ति को संन्यास ग्रहण करना चाहिए। इस संन्यास-संस्कार में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और वर्णबहिर्भूत साधारणजन का अधिकार है। यहाँ तक कि कलि के प्रबल होने पर विप्र तथा दूसरे वर्णों के लोगों का भी इसमें अधिकार है।

मनु स्मृति (12/20) के अनुसार वाक्, काय और मनोदण्ड को धारण करने वाले को त्रिदण्डि संन्यासी कहा जाता है।

श्रीमद् भागवत् (11/17/14) में श्रीकृष्ण, श्रीउद्धव से कहते हैं कि मेरी जाँघ
से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्याश्रम और वक्षःस्थल से वानप्रस्थाश्रम उत्पन्न हुआ है, किन्तु संन्यास मेरे मस्तक पर स्थित है।

श्रीमद् भागवत् (11/23/57) में ---- बड़े-बड़े प्राचीन ॠषि-मुनियों ने इस परात्मनिष्ठारूप संन्यास आश्रम का आश्रय लिया है।

श्रीस्कन्द पुराण के अनुसार त्रिदण्डी संन्यासी शिखा रखेंगे, यज्ञोपवीत धारण करेंगे तथा कमण्डलु ग्रहण करेंगे। वे गैरिक वसन पहनेंगे तथा पवित्र रहकर सर्वदा गायत्री मंत्र का जप करेंगे।

इसी प्रकार पद्म-पुराण, श्रीसंस्कार दीपिका आदि में भी संन्यास के बारे में वर्णित है।
प्राचीन काल में वैदिक संन्यासियों में अधिकांशतः त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण की प्रथा प्रचलित थी। कोई-कोई एकदण्ड भी ग्रहण करते थे। श्रुति, स्मृति, पुराण एवं आगमों में सर्वत्र त्रिदण्ड एवं कहीं-कहीं एकदण्ड संन्यास की विधि का उल्लेख देखा जाता है।

कभी-कभी श्रीब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड 185/280 की व्याख्या करते हुए ऐसा कहा जाता है कि कलिकाल में संन्यास वर्जित है। वैसे वेद, उपनिषद्, पुराण एवं स्मृतियों के उपदेश सार्वकालिक हैं।  जहाँ पर सभी शास्त्र संन्यास की प्रामाणिकता की बात बोल रहे हैं, वहीं एक श्लोक को ही हम सब कुछ मान लें, वह ठीक नहीं है। हाँ इस श्लोक का, कलियुग में संन्यास का निषेध किसी विशेष परिस्थिति या विशेष प्रकार के संन्यास के लिये ही उचित माना जा सकता है। क्योंकि ब्रह्म-वैवर्त पुराण (2/36/9) में ही संन्यास एवं गैरिक वसन धारण की विधि भी दी गयी है।

श्रीपद्म पुराण में तीन प्रकार के संन्यास का उल्लेख है -- ज्ञान संन्यास, वेद
संन्यास तथा कर्म संन्यास।

कलियुग में केवल कर्म संन्यास ही निषिद्ध है। इन्द्रियों के शिथिल होने पर रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्शादि सुखों को भोगने में असमर्थ हो जाने के कारण आत्मज्ञान या भगवद्भक्ति के उद्देश्य से रहित होकर जो लोग संन्यास ग्रहण करते हैं, वे कर्म संन्यासी हैं। 

भगवद् भक्त कर्मी नहीं होते, अतः उनके लिए कर्म संन्यास का प्रश्न ही नहीं उठता।

अतः विचार करने पर इस सिद्धान्त पर उपनीत हुआ जाता है कि कलियुग में भी दुखःपूर्ण संसार के प्रति वैराग्य उदित होने पर सांसारिक आसक्तियों का सर्वथा परित्याग कर भगवान श्रीमुकुन्द की एकान्तिकी सेवा के लिए (कर्म संन्यास के अतिरिक्त) संन्यास ग्रहण करना शास्त्र सम्मत है।

---- श्री श्रीमद् त्रिदण्डिस्वामी भक्तिवेदान्त नारायण महाराज (प्रबन्ध-पन्चकम् से)

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