
लेकिन श्रीजगन्नाथ जी श्रील जगदीश पण्डित के साथ कैसे जायेंगे, उसकी व्यवस्था करने के लिये भगवान ने तत्कालीन राजा को स्वप्न में श्री जगन्नाथ देव जी के नव-कलेवर के समय उनका समाधिस्थ विग्रह श्रीजगदीश पण्डित को देने के लिये निर्देश दिया। महाराज जी, श्रीजगदीश पण्डित से मिल कर अपने को भाग्यवान समझने लगे और बड़ी श्रद्धा के साथ आपको उन्होंने श्रीजगन्नाथ जी का विग्रह अर्पण कर दिया।
श्रीजगदीश पण्डित जी ने श्रीजगन्नाथ जी से कहा कि यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आप मेरे साथ जायेंगे किन्तु आप के भारी विग्रह को किस प्रकार उठा कर ले जाऊँगा ?
श्रीजगन्नाथ जी ने कहा -- तुम चिन्ता मत करो। मैं सूखी लकड़ी के खोखले तने के समान हलका हो जाऊँगा व आप मुझे एक नए वस्त्र में बाँध कर लाठी के सहारे कन्धों पर रख कर ले जायें तथा जहाँ पर स्थापन की इच्छा हो, वहीं पर रखें।
चक्रदह एक ऐतिहासिक पवित्र स्थान है। पौराणिक युग में यह स्थान 'रथवर्म' नाम से प्रसिद्ध था। द्वापर के अन्त में भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र श्रीप्रद्युम्न ने एक बार शम्ब्रासुर का इसी स्थान पर वध किया था। उसके बाद से इसने 'प्रद्युम्न नगर' नाम से प्रसिद्धि लाभ की, परवर्तीकाल में सगर वंश के उद्धार के लिए श्रीभगीरथ जब गंगा जी को ला रहे थे तो उसी समय उक्त स्थान में उनका रथ का पहिया (चक्र) धँस गया था इसलिए यह 'प्रद्युम्न नगर' चक्रदह नाम से प्रचारित हुआ। अब यह स्थान 'चाकदह' नाम से जाना जाता है।
उक्त मन्दिर के जर्जर होने पर उमेश चन्द्र मजूमदार महोदय जी की सहधर्मिणी मोक्षदा दासी ने श्रीमन्दिर का पुनः संस्कार किया। मन्दिर चूड़ा-रहित व साधारण ग्रह के आकार जैसा है। श्रीमन्दिर में श्रीजगन्नाथ देव, श्रीराधा बल्लभ जी व श्री गौर गोपाल विग्रह विराजित हैं। जिस लाठी के सहयोग से श्रीजगदीश पण्डित जी पुरी से श्रीजगन्नाथ विग्रह लाए थे, वह लाठी अब भी श्रीजगन्नाथ मन्दिर में सुरक्षित है।
अखिल भारतीय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के वर्तमान आचार्य श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी ने स्वरचित ग्रन्थ 'श्रीगौरपार्षद एवं गौड़ीय वैष्णवाचार्यों के संक्षिप्त चरितामृत' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि भगवान श्रीकृष्ण की लीला में जो याज्ञिक ब्राह्मण पत्नी थीं, वे ही श्रीजगदीश पण्डित व श्रीहिरण्य पण्डित के रूप में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की लीला में आविर्भूत हुईं थीं।
श्रीजगदीश पण्डित जी की जय !!!
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