बुधवार, 13 दिसंबर 2017

भगवान से झगड़ा

भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं में श्रीकृष्ण और उनके सखा एवं श्रीमती राधाजी और उनके पक्ष की गोपियों में जो प्रेम-कलह है वह वृज की लीला के माधुर्य की चमत्कारिता को प्रकाशित करती है। प्रबल झगड़े में भी प्रेम की पराकाष्ठा विद्यमान है, जिसे साधारंण बुद्धि से समझा नहीं जा सकता। इस प्रकार प्रेम माधुर्य की चमत्कारिता वृज को छोड़ कर कहीं भी देखने को नहीं मिलती।

एक समय श्रीवसुदेव जी ने श्रीबलदेव और श्रीकृष्ण जी की शान्ति की कामना से गर्ग ॠषि के दामाद भागुरीजी को प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त करते हुए गिरिराज गोवर्धन के नीचे अवस्थित गोविन्द कुण्ड के तट पर यज्ञानुष्ठान किया।
इस यज्ञ अनुष्ठान की खवर जब चारों ओर फैल गई तो वृषभानुनन्दिनी श्रीमती राधारानी  गुरूजनों की आज्ञा लेकर सखियों के साथ मक्खन बेचने के लिये उस यज्ञानुष्ठान कि ओर चल पड़ीं। 

इधर श्रीकृष्ण को पहले ही मालूम हो गया कि राधाजी और उनकी गोपियाँ यज्ञमण्डप की ओर आ रही हैं। अतः वे शुल्क लेने के लिये सखाओं के साथ गोवर्धन में दान घाट के रक्षक के रूप में रास्ता रोक कर बैठ गये। वे जिस स्थान पर बैठे उसे -कृष्ण वेदी- कहते हैंं। 

जब श्रीमती राधाजी सखियों के साथ वहाँ पहुँचीं तो श्रीकृष्ण शुक्ल लेने
वाले का वेश बनाकर उनके राजा मदन को प्राप्त होने वाले पदार्थों को शुल्क के रूप में देने के लिए जोर देने लगे।

इसी बात को लेकर दोनों में भीषण वाद-विवाद व झगड़ा आरम्भ हो गया। श्रीकृष्ण ने सखाओं को साथ लेकर रास्त रोके रखा। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक वे मक्खन इत्यादि नहीं देंगीं, तब तक वे श्रीमती राधा व उनकी सहेलियों को नहीं जाने देंगे। 
जब झगड़ा चरम सीमा पर पहुँच गया तब पौर्णमासी के बीच में पड़ने पर किसी प्रकार झगड़ा निपटा। 

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