गुरुवार, 30 नवंबर 2017

श्रीगीता शास्त्र का मुख्य तात्पर्य

कुरुक्षेत्र के मैदान में जब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा --

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ (श्रीगीता - 18/66) 

तब, उनके कहने का अर्थ यह था --

ब्रह्म-ज्ञान और ईश्वर-ज्ञान प्राप्ति का उपदेश देते समय वर्ण और आश्रम धर्म, संन्यास धर्म, वैराग्य, शम दम आदि धर्म, ध्यान योग, ईश्वर की ईशिता के वशीभूत होने इत्यादि जितने प्रकार के धर्मों क उपदेश दिया है, उन सब को पूरी तरह त्याग क भगवत्-स्वरूप एक मात्र मेरी शरण स्वीकार करो।  मैं तुम्हें सारे पाप अर्थात् पहले कहे गये धर्मों के परित्याग से जो पाप होंगे, उन सब से मुक्त कर दूँगा।
आप अपने आप को अकृतकर्मा समझ क शोक मत करना। मेरी निर्गुण भक्ति करने से जीव का, प्राणी का सत् स्वभाव (वास्तविक स्वभाव) सहज ही स्वास्थ्य लाभ करता है। धर्माचरण, कर्तव्य आचरण और प्रायश्चितादि तथा ज्ञान, योग और ध्यान का अभ्यास कुछ भी आवश्यक नहीं होता। 

वर्तमान अवस्था में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सारे कर्म करो किन्तु उन-उन कर्मों में ब्रह्म के प्रति निष्ठा को छोड़ कर मेरे सौन्दर्य और माधुर्य से आकर्षित होकर एकमात्र मेरी ही शरण लो। 

तात्पर्य यही है कि मनुष्य अपने जीवन-निर्वाह के लिए जितने प्रकार के कर्म करता है, वे सब तीन प्रकार की उच्च निष्ठा से करता है, या फिर इन्द्रियसुख - निष्ठारूप अधमनिष्ठा से करता है। अधम निष्ठा से अकर्म और विकर्मादि होते हैं, जो अनर्थ देने वाले हैं। उत्तम निष्ठा तीन प्रकार की है -- ब्रह्म के प्रति निष्ठा, ईश्वर के प्रति निष्ठा और भगवान के प्रति निष्ठा।

वर्णाश्रम और वैराग्य इत्यादि सभी कर्म एक-एक प्रकार की निष्ठा को
अवलम्बन कर एक-एक प्रकार के भाव को प्राप्त होते हैं।  जब ये कर्म  ब्रह्म-निष्ठा के अधीन होकर किये जाते हैं तब कर्म और ज्ञानभाव का प्रकाश होता है।  जब ये कर्म ईश्वर-निष्ठा के अधीन होकर किये जाते हैं तब ईश्वर अर्पित कर्म और ध्यानयोग आदि का भाव मन में उदित होता है और जब भगवान में निष्ठा रखकर किये जाते हैं तब वे शुद्ध एवं केवला भक्ति में परिणत हो जाते हैं। 

इसलिए भक्ति का यह गुह्यतम तत्व एवं भगवद्-प्रेम ही सभी प्राणियों का चरम प्रयोजन है।

यही गीताशास्त्र का मुख्य तात्पर्य है।

(कर्मी, ज्ञानी, योगी और भक्त -- इनका जीवन क प्रकार का होने पर भी निष्ठा में भेद होने से ये बिल्कुल अलग-अलग हैं।) 

--  श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के लेखों से ।

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