रविवार, 29 जनवरी 2017

'ठंड रख ठंड'।

एक बार किसी ने प्रश्न किया -- महाराज जी मुझे इतने बरस हो गये, नियमित मन्दिर आता हूँ, हरिभजन भी करता हूँ। आपकी कृपा से सत्संग भी हो जाता है, अच्छा भी लगता है पर जिस वस्तु की तलाश में हम हैं, वह तो कहीं दिख नहीं रही। दुःख अभी भी घर में डेरा जमाएँ बैठे हैं? बिमारी भी बिना रोक-टोक आती-जाती रहती है। जबकि आप कहते थे कि, भगवान पर सब छोड़ दो, वे सब संभाल लें गे, हमारे परम-पिता हैं वे, वे नहीं हमारा ख्याल रखेंगे तो कौन रखेगा, पर बात बनती कुछ नज़र नहीं आती।

मैंने उसे बिठाया व कहा कि पंजाब में एक बात अक्सर बोलते हैं। 'ठंड रख ठंड'।

उन्होंने जवाब दिया कि अभी तक वही तो रखे थे, महाराज!


तब फिर मैंने एक कहानी सुनायी जो गुरुजनों के मुख से सुनी थी। -- एक बार की बात है। बंदरों की सभा हो रही थी। विषय था 'भोजन'।

हर कोई अपनी आप बीती सुना रहा था कि कैसे जब वह बगीचे में फल तोड़ने गया तो डंडे पड़ने लगे, कैसे किसी घर से एक सब्ज़ी का टुकड़ा उठाया तो डंडे पड़े, किसी ने उसे पत्थर फैंक कर मारा, इत्यादि।

अंत में यह फैसला हुआ कि सब मिलकर स्वयं अपना बगीचा ही लगा लेंगे। सबने मिलकर जगह भी निर्धारित कर ली। हर एक को किसी न किसी प्रकार की कलम, बीज, बेल, इत्यादी लाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी गयी। अब जब सब इकट्ठे हुए तो कोई लिची की कलम लाया था, तो कोई किसी फल की गुठली।
सब मिलकर जंगल से बहुत दूर एक स्वच्छ स्थान पर गये। काफी दूर तक फैला समतल मैदान। उन्होंने हाथों से खुदाई की व अपनी कलम या बीज़ या गुठली, जो भी था सब बो दिया। इतने श्रम के बाद सब थक गये और अलग-अलग पेड़ की डालियों पर जाकर सो गये। 

करीब दो घंटे के बाद उनमें से एक बंदर की नींद खुली। उसने अपने साथी को उठाया व कहने लगा -- यार, काफी समय हो गया, लीची लगाये। कोई अन्य उसके फल तोड़ के न ले गया हो। आओ ज़रा जाकर देख आयें।

दूसरे साथी ने कहा -- हाँ यार! मुझे मेरे आमों की चिन्ता हो रही है। इतनी
देर में तो पेड़ के ऊपर आम आकर पक भी गये होंगे।

दोनों जनों ने वहाँ जाकर देखा तो मैदान समतल। दोनों रोने लगे -- अरे कोई हमारा पेड़ उखाड़ कर ले गया। अरे चोरी हो गयी। 

उनकी चीखो-पुकार से सब बन्दर जाग गये व वहाँ आ पहुँचे। सभी रोने लगे। उनमें से एक कुछ ज्यादा ही समझदार था, बोला -- रो क्यो रहे हो, हो सकता है पेड़ इत्यादि अभी अन्दर ही हों।
सबने खोदना शुरू कर दिया। सबने अपने द्वारा बोये गये बीज इत्यादि उखाड़ लिये। अभी कुछ नहीं हुआ था। अब उन्हें कौन समझाये कि बीज़ बोने के बाद, जल देना होता है, फिर बीज़ अंकुरित होगा, फिर पौधा लगेगा, बढ़ेगा, फिर कच्चे आम आयेंगे, अन्त में पके आम आयेंगे।

इन सब में सबसे बड़ी कमी थी धैर्य की। धैर्य करते तो कुछ समय उपरान्त अपने मन-पसन्द फल की प्राप्ति भी हो जाती। जब व्यवहारिक जीवन में धैर्य की इतनी आवश्यकता है तो आध्यात्मिक में क्यों नहीं होगी? धर्य धरने से ही भगवान सुलभ होते हैं। पुरानी कहावत है सब्र का फल मीठा होता है। अगर शबरी धैर्य न धरती तो क्या भगवान राम चन्द्र आते उनके
यहाँ?  शबरी छोटी सी थी जब ॠषि ने उससे कहा था कि भगवान आयेंगे तेरे यहाँ। वृद्धा हो गयी पर गुरु की बार पर विश्वास था और धैर्य था। उत्साह था, रोज़ भगवान के आने की बाट देखती। अन्ततः भगवान आये उसके यहाँ। 

ऐसे ही एक बार भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभुजी जब श्रीवास आंगन में श्रीकृष्ण-नाम-कीर्तन में रत थे, तो उनके लिये श्री वास पण्डितजी के यहाँ काम करने वाली प्रतिदिन जल लेकर आती थी, यही सोचकर की कभी न कभी भगवान कृपा करेंगे ही। उसकी सेवा कोई विशेष नहीं, पर अटल धैर्य
था उसका कि कभी न कभी तो भगवान की दया दृष्टि होगी ही। धैर्य होगा तो उत्साह भी रहेगा ही। अन्ततः भगवान महाप्रभुजी को एक बार गर्मी लगी व उन्होंने स्नान करने की इच्छा प्रकट की। वहीं श्रीवास आंगन में भक्तों ने मिलकर उन्हें स्नान कराया। जल, सारा का सारा श्रीवासजी की वही सेविका ही लेकर आयी थी।

अतः धैर्य से ही भगवान मिलते हैं। धैर्य से ही जीवन में सुख आता है। धैर्य
धरने से ही विश्वास जगता है। अगर आपमें विश्वास है कि भगवान कृपा अवश्य करेंगे तो भगवान भी पीछे नहींं रहेंगे। बस आवश्यकता है तो केवल मात्र धैर्य की।
----- त्रिदण्डि स्वामी भक्ति विचार विष्णु

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