शनिवार, 24 दिसंबर 2016

सफला एकादशी

सफला एकादशी पौष महीने की कृष्ण पक्ष की एकादशी है। ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णन है कि जैसे  नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरुड़, यज्ञों में अश्वमेघ यज्ञ, नदियों में गंगोत्री, देवकाअों में विष्णु उसी प्रकार समस्त व्रतों में एकादशी व्रत सर्वश्रेष्ठ है। पांच हजार वर्षों की तपस्या का पुण्य केवल एक एकादशी व्रत से मिल जाता है। 

चंपावती नामक नगर में महिष्मत नामक एक राजा था। उनके बड़े पुत्र का नाम लुम्पक था। वह बहुत दुष्ट अौर पापी था। वह सभी की निंदा करने में ही लगा रहता था। एक दिन राजा ने उसे राज्य से निकाल दिया। वह मजबूरी में जंगल में चला गया व राहगीरों की लूटपाट करने लगा। मांस व फल खाकर वह अपना पेट भरने लगा। उस वन में एक पीपल का वृक्ष था जो सबका पूजनीय था। लुम्पक उस पेड़ के नीचे भी रहा। एक दिन उसकी तबीयत खराब हो गई। वह बेहोश हो गया। उस दिन एकादशी तिथि थी। अगले दिन दोपहर तक वह ऐसे ही पड़ा रहा। दोपहर को किसी प्रकार उठा कुछ फल इकट्ठे किए, मन ही मन भगवान विष्णु को अर्पण कर खा लिया। बीमारी व भूख से उसे सारी रात नींद भी नई आई। लुम्पक के साथ जब ये घट रहा था तो उस दिन सफला एकादशी थी। निराहार व्रत एवं रात्रि जागरण करके व्रत करने से भगवान मधुसूदन उस पर बहुत प्रसन्न हुए। 

द्वादशी के दिन प्रात: काल एक दिव्य अश्व उसके पास आया व आकाशवाणी हुई- हे राजकुमार! इस सफला एकादशी के प्रभाव से आपको राज्य प्राप्त होगा। आप घर जाअों अौर राजसुख भोगो। वह राज्य लौटा अौर पिता को सारी बात बताई। पिता जी ने उसका स्वागत किया। कालक्रम से वह वहां का राजा बना। समय पर उसका सुंदर कन्या से विवाह हुआ अौर उसके घर आज्ञाकारी पुत्र ने जन्म लिया। धार्मिक पुत्र प्राप्त करके लुम्पक ने राज्य का सुख भोगा।
 
सफला एकादशी व्रत के फल से मानव इस लोक में यश तथा परलोक में मोक्ष की भी प्राप्ति कर सकता है। इस व्रत द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है।

अखिल भारतीय श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के वर्तमान आचार्य श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज बताते हैं कि एकादशी व्रत आदि भक्ति साधनाअों का असली उद्देश्य राज्य, सुंदर स्त्री या सुंदर पति अथवा आज्ञाकारी
पुत्र प्राप्त करना नहीं है। एकादशी व्रत का असली उद्देश्य तो भगवान श्रीहरि की अद्वैत भक्ति प्राप्त करना है जोकि हर प्राणी का सर्वोत्तम मकसद है। भगवान से भगवान की सेवा मांगने से जीव का जीवन व उसकी एकादशी व्रत आदि करने की साधना परिपूर्ण रुप में सफल होती है। 

एकादशी व्रत के प्रसंगों में अष्टद्वादशी व्रत कथा को विशेष भाव से जानना चाहिए। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण के अनुसार उन्मीलनी, व्यंजुली, त्रिस्पर्शा, पक्षवर्द्धिनी, जया, विजया, जयन्ती व पापनाशिनी ये आठ महाद्वादशी महापुण्य स्वरूपिणी व सर्व-पापहारिणी है। इनमें से पहली चार तिथियों के अनुसार व बाद की चार नक्षत्र योग के अनुसार घटित होती है। जैसे द्वादशी तिथि में जब दो सूर्योदय आ जाए तो व्यंजुली महाद्वादशी कहलाती है। इसी प्रकार अगर अमावस्या अथवा पूर्णिमा में दो सूर्योदय आ जाए तो वह पक्षवर्द्धिनी महाद्वादशी कहलाती है। जब इन आठों महाद्वादशियों में से कोई भी आती है तो भक्त लोग इस तिथि को अधिक महत्व देते हुए इसका सम्मान करते हैं। 
जब एकादशी वृद्धि न पाय परन्तु द्वादशी वृद्धि पाय, तब यह व्यंजुली महाद्वादशी कहलाती है। यह महाद्वादशी सम्पूर्ण पापों का नाश कर देती है। शुद्ध भक्तगण अपनी इन्द्रियों की इच्छापूर्ति की इच्छा न करके, श्रीकृष्ण की प्रसन्नता व श्रीकृष्ण की इच्छा को पूरा करने के लिये, व शुद्ध भक्ति के प्रेम-फल की प्राप्ति के लिये ये व्रत करेंगे। इन अष्ट द्वादशी व्रत के उपस्थित होने पर शुद्ध भक्तगण एकादशी उपवास न कर, इन सब महाद्वादशी व्रत का ही पालन करेंगे। इस व्रत का पालन करने से ही एकादशी का सही व्रत होता है व श्रीहरि प्रसन्न होते हैं।

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