शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

श्रील भक्ति श्रीरुप सिद्धान्ती महाराज जी के आशीर्वचन ।

1) भक्त व भगवान की सेवा करने से सुकृति का फल मिलता है। ऐसी अनेकों सुकृतियाँ इकट्ठी हो जाने पर, किसी न किसी जन्म में श्रीकृष्ण की कृपा से सद्गुरु से साक्षात्कार हो जाता है, जोकि श्रीकृष्ण भक्त होते हैं।  ऐसे गुरु से लगातार हरिकथा सुनने से हृदय में भक्ति उदित हो जाती है।

जैसे सूर्य की किरणों से ही सूर्य के दर्शन होते हैंं। उसी प्रकार साधु-भक्त की कृपा से ही साधु की पहचान होती है तथा साधु के शरणागत होकर हरिभजन की लालसा जागती है।


शुद्धभक्त के आश्रय में रहकर हरिभजन की क्रियायें करते रहने से साधक के हृदय से तमाम भोगों की इच्छायें समाप्त हो जाती हैं। यही नहीं, शुद्धभक्त के आश्रय में रहकर हरिभजन की क्रियायें करते रहने से साधक के हृदय में भरे सभी अनर्थ समाप्त हो जाते हैं तथा उसे शुद्ध वैराग्य हो जाता है। वैराग्य के हो जाने पर साधक के हृदय में आत्म-जिज्ञासा उत्पन्न होती है।

निष्कपट रूप से श्रीकृष्ण भक्ति करते-करते, गुरु-पाद्पद्म सेवा करते-करते,  शरणागत शिष्य अपना वास्तव परमार्थ स्वरूप जान लेता है।

2) महाभागवत वैष्णवगण श्रीश्रीगौर-गोविन्द भगवान के नित्य प्रिय-जन हैं। जब तक किसी प्राणी  की बहुत जन्मों की शुद्ध-भक्ति रूपी सुकृतियाँ ना हों, तब तक उसे न तो इनका दर्शन होगा और न ही पदाश्रय।

3) सभी शास्त्रों के यथार्थ तात्पर्य को जानने वाले, भगवद्-निष्ठ भजन-परायण साधु ही वास्तविक गुरु हैं। बद्ध जीवों की मन के मुताबिक बात करके या चापलूसी करके उनको अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा करने
वाले वास्तविक गुरु नहीं हैं। बल्कि वे प्राणियों के परम शत्रु हैं। ऐसे लोगों द्वारा की गयी हरिकथा चाहे हमारे मन को बहुत अच्छी लगे, तो भी ऐसे चापलूस लोगों का संग नहीं करना चाहिये।

4) गुरुजी की व भक्तों की बातें मेरे लिये या मेरे विचारों के लिये, चाहे जितनी भी कठोर व निर्मम क्यों न हो, परन्तु यह सत्य है कि उनके निष्कपट वाक्य ग्रहण करने से मेरा कल्याण ही होगा।

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