शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

श्रीगीता का सही अर्थ समझने के लिये क्या करना होगा?

श्रीमद् भगवद् गीता के चतुर्थ अध्याय के प्रथम श्लोक --

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्य्यम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत॥
………से पता चलता है कि लाखों वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण भगवान ने सूर्य देवता विवस्वान को कर्मयोग का ज्ञान दिया था। अर्जुन को श्रीभगवद्गीता का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण यहाँ पर सूचित करते हैं कि ये उपदेश कोई नए नहीं हैं। वे इनका उपदेश एक भिन्न लोक में लाखों वर्ष पूर्व दे चुके थे। विवस्वान ने इन उपदेशों को अपने पुत्र मनु के समक्ष दुहराया और मनु ने उन्हें अपने शिष्य इक्ष्वाकु को दिया।

कहने का आशय यह है कि यदि कोई भगवद्गीता सीखना और उससे लाभ
उठाना चाहता है तो उसकी अपनी एक विधि होती है, जिसका वर्णन यहाँ पर किया गया है। ऐसा नहीं है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन जी  से भगवद्गीता का प्रवचन पहली बार किया हो। वैदिक प्रमाणों से अनुमान लगता है कि उन्होंने ये दिव्य उपदेश लगभग 4,000 लाख वर्ष पूर्व श्रीविवस्वान को दिये थे। महान ग्रन्थ महाभारत से पता चलता है कि लगभग 5,000 वर्ष पूर्व श्रीअर्जुन को श्रीगीता का उपदेश दिया गया था। श्रीअर्जुन के पूर्व ये उपदेश शिष्य-परम्परा से चले आ रहे थे, किन्तु इतने दीर्घ काल में वे लुप्त हो गए।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप॥
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातन्।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्योत्दुत्तमम्॥ (श्रीगीता 4/2-3)

अर्थात्, 
(इस प्रकार शिष्य-परम्परा के द्वारा यह परम विज्ञान प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इस विधि से इसे जाना; किन्तु कालक्रम में वह परम्परा खण्डित हो गई जिससे यह विज्ञान अपने यथार्थ रूप में लुप्तप्राय हो गया। परमेश्वर से संबन्ध का वही प्राचीन विज्ञान मैंने आज तुमसे कहा है क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो; अतएव तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो।)

श्रीगीता में अनेक प्रकार की योग पद्धतियाँ बताई गई हैं -- भक्तियोग,
कर्मयोग, ज्ञानयोग, हठयोग। इसीलिए यहाँ पर इसे योग कहा गया है। योग शब्द का अर्थ है 'जोड़ना' और इसका भाव यह है कि योग में हम अपनी चेतना को ईश्वर से जोड़ते हैं।  यह ईश्वर से पुनः जुड़ने या ईश्वर से अपना सम्बन्ध पुनः स्थापित करने का साधन है। 

कालक्रम में श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त यह योग लुप्त हो गया। ऐसा क्यों हुआ?
क्या जिस समय श्रीकृष्ण अर्जुनजी से कह रहे थे उस समय विद्वान साधु न थे? क्यों नहीं थे। उस समय अनेक साधु-संत थे। 

'लुप्त' का अर्थ है, कि भगवद्गीता का तात्पर्य (सार) लुप्त हो गया था। 

भले ही विद्वत्-वृन्द अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार भगवद्गीता
की व्याख्या प्रस्तुत करें, किन्तु यह व्याख्या श्रीगीता नहीं हो सकती। 

इसी बात को श्रीकृष्ण बल देकर कह रहे हैं और श्रीगीता के अध्येता को इस पर ध्यान देना चाहिए। कोई व्यक्ति भौतिक-दुनियावी दृष्टि से अच्छा विद्वान हो सकता है, किन्तु इतने से वह श्रीगीता पर टीका लिखने का अधिकारी नहीं बन जाता। श्रीभगवद् गीता को समझने से लिए हमें शिष्य-परम्परा स्वीकार करनी होगी। हमें श्रीमद् गीता की आत्मा में प्रविष्ट करना है, न कि पाण्डित्य की दृष्टि से इसे देखना है।
श्रीकृष्ण ने सारे लोगों में से इस ज्ञान के लिए अर्जुनजी को ही सुपात्र क्यों समझा? श्रीअर्जुन न तो कोई विद्वान थे, न योगी और न ही ध्यानी अथवा पवित्रात्मा। वे तो युद्ध में लड़ने के लिए सन्नद्ध शूरवीर थे। उस समय अनेक महान ॠषि जीवित थे और श्रीकृष्ण चाहते तो उन्हें श्रीगीता का ज्ञान प्रदान कर सकते थे। 

इसका उत्तर यही है कि सामान्य व्यक्ति होते हुए भी श्रीअर्जुन की सबसे बड़ी विशेषता थी -- भक्तोऽसि मे सखा चेति-- 'तुम मेरे भक्त तथा सखा हो।'

यह अर्जुनजी की अतिरिक्त विशेषता थी जो बड़े से बड़े साधु में नहीं थी।

श्रीअर्जुन को ज्ञात था कि कृष्ण श्रीभगवान हैं, अतः उन्होंने अपना गुरु
मानकर अपने आपको समर्पित कर दिया। 

भगवान श्रीकृष्ण का भक्त बने बिना कोई व्यक्ति श्रीमद् भगवद् गीता को नहीं समझ सकता।

--- राज-विद्या (ज्ञान का राजा) से,
-- परमपूज्यपाद श्रील ए सी भक्ति वेदान्त स्वामी महाराज जी।
(संस्थापक - इस्कान)

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