शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

गोपीनाथ जी की मूर्ती आपके सामने बैठकर खाने लगी……

एक बार पश्चिम बंगाल के श्रीखण्ड नामक स्थान पर भगवान के एक भक्त, श्रीमुकुन्द दास रहते थे। आप के यहाँ भगवान श्रीगोपीनाथ जी का श्रीविग्रह (श्रीमूर्ति) थी। आप उनकी बहुत सेवा करते थे। 

एक बार आपको किसी कार्य के लिए बाहर जाना था। इसलिए आप ने अपने पुत्र रघुनन्दन को बुलाकर कहा कि घर में श्रीगोपीनाथ जी की सेवा होती है, इसलिए बड़ी सावधानी से उनको भोग, इत्यादि लगाना। यह सब बताकर आप अपने कार्य के लिए चले गये।

पिताजी के जाने के बाद रघुनन्दन अपने मित्रों के साथ खेलने चले गये। 
दोपहर के समय, माताजी ने आवाज़ देकर कहा कि अरे रघुनन्दन ! भोग तैयार है। आकर ठाकुर को लगा दे।

रघुनन्दन खेल छोड़ कर आये, व हाथ धोकर भोग की थाली श्रीगोपीनाथ जी के आगे सजाई। फिर बोले, 'लो जी ! आप ये खाइये। मैं कुछ देर में आकर थाली ले जाऊँगा।'

श्रीरघुनन्दन अभी बालक ही थे। इसलिए बड़े ही सरल भाव (बालक - बुद्धि) से रघुनन्दन ने श्रीगोपीनाथ जी से निवेदन  किया।

फिर वे खेलने चले गये।
कुछ देर बाद उन्हें याद आया कि गोपीनाथ जी उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, कि कब आप थाली लेने आयेंगे। ऐसा सोच कर आप घर के मन्दिर में आये। आकर आपने देखा कि भोग तो ऐसे का ऐसे ही रखा हुआ है, जैसा वे उसे छोड़ गये थे।

बालक रघुनन्दन ये देख घबरा गये। कहने लगा,' अरे ! आपने इसे खाया 

क्यों नहीं? क्या गड़बड़ हो गयी? पिताजी को पता लगेगा तो बहुत डांटेंगे ।' ऐसा कह कर रघुनन्दन रोने लगे।

फिर भी कुछ नहीं हुआ। गोपीनाथ जी ने खाना शुरु नहीं किया।

अब तो रघुनन्दन ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे व हाथ जोड़ कर कहने लगे, 'आप खाओ। आप खाओ ।' और अनुनय-विनय करने लगे ।

'भक्त-प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को नियम बदलते देखा………'

और श्रीगोपीनाथ जी प्रकट् हो गये। रघुनन्दन के सामने बैठकर खाने लगे।

खाने के उपरान्त श्रीगोपिनाथ जी वापिस मूर्ति बन गये। रघुनन्दन ने खुशी-खुशी थाली उठाई और माँ को दे दी। माता के खाली थाली देख सोचा कि अबोध बालक है, भूख लगी होगी, इसलिए स्वयं प्रसाद पा लिया होगा या मित्रों में बांट दिया होगा। बालक को संकोच ना हो, इसलिए माता ने बालक से कुछ पूछा ही नहीं।

शाम को श्रीमुकुन्द घर आये तो बालक रघुनन्दन से पूछा कि सेवा कैसी हुई। रघुनन्दन जी ने उत्तर दिया, 'बहुत अच्छी'।

श्रीमुकुन्द दास जी ने कहा, 'जाओ, कुछ प्रसाद ले आओ।'
रघुनन्दन ने उत्तर दिया, 'प्रसाद? वो तो गोपीनाथ जी सारा ही खा गये, कुछ छोड़ा ही नहीं।'

यह सुन कर श्रीमुकुन्द दास ही बहुत हैरान हुए। उन्हें पता था कि इतना नन्हा बालक झूठ नहीं बोल सकता।

कुछ दिन बाद आपने रघुनन्दन को बुलाकर कहा कि मैंने आज भी किसी कार्य से बाहर जाना है, इसलिए गोपीनाथ जी की ठीक ढंग से सेवा करना, उस दिन की तरह।

आप घर से बाहर चले गये, किन्तु कुछ ही समय बाद, भोग लगने से पहले वापिस आ गये और घर में छिप गये।

माता ने उस दिन विशेष लड्डू तैयार किये थे। उन्होंने बालक रघुनन्दन को बुलाकर कहा, 'आज गोपीनाथ को ये लड्डू भोग लगाओ, और सब ना खा जाना।'

बालक माँ की बात समझा नहीं , किन्तु गोपीनाथ जी के पास भोग लेकर 
चला गया।

मन्दिर में जाकर लड्डू से भरा थाल गोपीनाथ जी के आगे सजाया  व हाथ में लड्डू लेकर गोपीनाथ जी की ओर बड़ाते हुये बोले, ' माँ ने बहुत बड़िया लड्डू बनाये हैं । मुझे खाने से मना किया है। आप खाओ। लो, ये लो, खाओ।'

रघुनन्दन फिर से रोना प्रारम्भ न कर दे, इसलिए गोपीनाथ जी ने हाथ बड़ाया और लड्डू खाने लगे। 

अभी आधा लड्डू ही खाया था कि श्रीमुकुन्द दास जी कमरे में आ गये। 

आधा लड्डू जो बच गया था, वो श्रीगोपीनाथ जी के हाथ में ऐसे ही रह गया। 
यह देखकर श्रीमुकुन्द प्रेम में विभोर हो गये । आपके नयनों से अश्रुधारा चलने लगी, कण्ठ गद्-गद् हो गया और अति प्रसन्न होकर आपने रघुनन्दन को गोद में उठा लिया।

आज भी श्रीखण्ड में आधा लड्डू लिये श्रीगोपीनाथ जी विराजमान हैं । कोई भाग्यवान ही उनके दर्शन पा सकता है।

(श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी द्वारा रचित 'श्रीगौरपार्षद एवं गौड़ीय वैष्णवाचार्यों के संक्षिप्त चरितामृत' से………)

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