रविवार, 24 जनवरी 2016

भगवद् भक्ति में जातिवाद के लिए कोई स्थान नहीं।


श्रीमद् भगवद् गीता के आगे जो श्रीमद्  भागवतम् है उसका असली सन्देश क्या है, उसको हम अपने जीवन में कैसे उतार सकते हैं, उसकी शिक्षा हमें आचरण करके श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ने दी। उन्होंने शिक्षा दी कि भगवद् भक्ति में जातिवाद का कोई महत्व नहीं है। 

उनकी लीलाओं को अगर हम देखें तो उन्होंने अपने हरिनाम संकीर्तन के प्रधान सेनापति के लिये श्रीरूप-श्रीसनातन गोस्वामी जी को नियुक्त किया जो कि एक ब्राह्मण कुल के थे। उन्होंने श्रीकाशीश्वर, आदि को अपने साथ रखा जो एक क्षत्रीय कुल से थे। श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जो श्रीमहाप्रभुजी के बहुत करीब रहे, एक वैश्य कुल से थे। 
आज से 525 साल पहले के समय की कल्पना करें जब जातिवाद चरम था। शुद्र को घर में आने की इज़ाजत नहीं थी। उसे कोई अपने गिलास में पानी तक नहीं पिलाता था, इत्यादि। ऐसे समय भी श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने अपने साथ एक शुद्र कुल के व्यक्ति को रखा और उसके हाथ से बना भोजन ही खाते थे। भक्ति में जातिवाद का कोई महत्व नहीं है, यह सन्देश देने के लिये।  
श्रीमहाप्रभु जी ने सभी जातियों को अपने साथ उनकी जाति देख कर नहीं रखा, बल्कि उन सबका भगवान के प्रति समर्पण देखकर, भगवान के प्रति प्रेम देखकर ही उन सबको अपने साथ लिया।

जाति-पाति पूछे नहीं कोई। 
हरि को भजि सो हरि का होई॥

उन्होंने सबको श्रीकृष्ण-प्रेम में डुबो दिया। जिस श्रीहरिनाम संकीर्तन अन्दोलन के लिये वे आये, उसका प्रमुख उन्होंने एक मुसलमान व्यक्ति को बनाया। सिर्फ मुसलमान ही नहीं, सभी जातियों को उन्होंने अपने साथ रखा। 

यही नहीं झारखण्ड में उन्होंने क्या हिंसक, क्या अहिंसक पशु-पक्षी आदि सभी से श्रीहरिनाम संकीर्तन करवा कर उन सब को भी श्रीकृष्ण-प्रेम की बाढ़ में डुबो दिया।

संसार में वो महान है, वो भक्त है जो कृष्ण-तत्त्व को जानता है, जिसका भगवान के प्रति आत्म-समर्पण है। भक्ति में किसी जाति-पाति का कोई स्थान नहीं है। 

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