मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

…पहले आप मुझे पत्थर की मूर्त समझते थे……

एक ब्राह्मण धन की कामना से ठाकुर जी की सेवा करता था। 

उसका धन बढ़ने की बजाय नष्ट होता गया। एक दिन उसकी भेंट किसी साहूकार से हुई जब दोनों में वार्तालाप हुआ तो साहुकार बोला,"आप गलत मूर्ति का पूजन कर रहे हैं। ठाकुर जी तो केवल अपने चरणों की भक्ति देते हैं या फिर जन्म-मरण के बंधन से सदा-सदा के लिए मुक्ति दिलवा देते हैं। धन देने वाली तो दुर्गा मां हैं। आप उनकी सेवा करें।" 
ब्राह्मण को तो केवल धन की कामना थी फिर चाहे वो ठाकुर जी की भक्ति हो या देवी दुर्गा की। 

उसने घर आकर ठाकुर जी की मूर्ति को उठाकर सिंहासन के किनारे कुछ दूरी पर रखी अलमारी में रख दिया और सिंहासन पर मुरली मनोहर की जगह देवी को सम्मान के साथ पधरा कर पूजा करने लगा।

एक दिन वह देवी को गुग्गुल की सुगंधित धूप दे रहा था। ब्राह्मण ने देखा धूप का धुआं हवा से मुरलीमनोहर की ओर जा रहा है। उसे बहुत क्रोध आया और मन ही मन विचार करने लगा देना-लेना कुछ नहीं धूप सूंघने को तैयार बैठे हैं। देवी के धूप को सूंघ कर झूठी कर रहे हैं। उसने रूई ली और ठाकुर जी की नाक में ठूंस दी। 

उसी समय ठाकुर जी प्रगट हो गए और बोले,"वर मांगों।"

ब्राह्मण बोला," वरदान मैं बाद में मांगूगा पहले यह बताएं जब मैं आपकी सेवा करता था तब तो आप जड़ बने रहे अब आप कैसे प्रसन्न होकर मुझे वरदान देने आ गए।"

ठाकुर जी बोले," पहले आप मुझे पत्थर की मूर्त समझते थे मैं भी जड़ बना रहा परंतु अब तुमने मुझे साक्षात भगवान समझा तुम्हें विश्वास हो गया की मैं धूप सूंघ रहा हूं। मैं भी सच में तुम्हारे सामने आ गया।  

सभी मूर्तियां भगवान होती हैं ऐसी बात नहीं है। जिस मूर्ति की प्रतिष्ठा भगवान के अन्नय भक्त के द्वारा होती है वेतन भोगी पुजारी के द्वारा नहीं वहीं भगवान का अधिष्ठान होता है। शास्त्र कहते हैं जिसकी जैसी भावना होती है व जिसका जैसा विश्वास होता है उसकी सिद्धि भी उसी प्रकार होती है।

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