वर्तमान समय कितना अद्भुत होता जा रहा है। लोग छोटी-छोटी बात को लेकर झगड़ा करने लगे हैं। और आजकल तो अखबारों में एक नया कारनामा छप रहा है जिसे लोग 'रोड रेज' (Road Rage) के नाम से पुकारते हैं।
क्या अद्भुत कारनामा है, की किसी की कार आप की कार से छू कर निकल गयी और आपका पारा सातवें आसमान पर, किसी की कार आपकी कार से आगे निकल गयी तो आप गुस्से में लाल-पीले हो जाते हैं और झगड़े का प्रारम्भ हो जाता है। हम यह भी भूल जाते हैं कि घर में हमारे माता-पिता अथवा पत्नी-बच्चे इंतज़ार कर रहे हैं। कुछ अनहोनी हो गयी तो उनका क्या होगा? उनकी उम्मीदों का क्या होगा?
प्रतिस्पर्धा अच्छी है, परन्तु ऐसी भी क्या जो किसी का जान ही ले ले। गुस्सा आना स्वभाविक ही है परन्तु ऐसा भी क्या कि उसका फल परिवार भोगे? प्रतिस्पर्धा तो भक्तों में भी होती है किन्तु एक स्वस्थ रूप में। भक्त का उद्देश्य भगवान की सेवा तथा उनको प्रसन्न करना होता है। भगवान की सेवा करते-करते, धीरे-धीरे उसका चित्त ऐसा निर्मल हो जाता है कि औरों को उत्साह देना उसका स्वभाव बन जाता है। ईर्ष्या तो दूर-दूर तक नहीं दिखती। शायद यही कारण है कि हमारे बड़े हमसे कहते थे कि बेटा सब कुछ करो लेकिन भगवान का भजन भी करो। क्योंकि वे जानते थे कि इससे हमारा चित्त निर्मल हो जायेगा और कम से कम हम किसी से झगड़ेंगे नहीं। और हमारे अन्दर दूसरों को मान देने की भावना आयेगी व किसी की तरक्की से हम जलेंगे नहीं।
जगत जानता है कि विभीषणजी ने भगवान श्रीरामचन्द्र जी को बताया कि रावण की नाभी में बाण मारने से वो मरेगा। भगवान तो अंतर्यामी हैं, तो क्या वे नहीं जानते थे कि रावण की नाभी में बाण से प्रहार करने से वो मर जायेगा? वे जानते थे, किन्तु भक्त-वत्सल भगवान, भक्त का मान बढ़ाने के लिये अपने मान का तिरस्कार कर देते हैं। किन्तु भगवान के भक्त, उनसे भी बढ़ कर होते हैं व अपने सह-भक्त का मान बढ़ाने की भरपूर चेष्टा करते रहते हैं, वो भी बिना किसी लोभ के, बिना किसी ईर्ष्या के। यह भजन का मार्ग है ही ऐसा। इसमें व्यक्ति अपना-पराया कुछ नहीं देखता क्योंकि साधु की नज़र में सभी प्राणी उसके प्रभु के हैं, अतः सभी प्राणी उसके अपने ही हैंं।
देखो न, तभी तो यह जगत विदित मान की रावण को मारने की युक्ति विभीषण ने दी, राम-भक्त हनुमानजी ने राम-भक्त विभीषण को लेने दिया, जबकि रावण के वध के मूल में हैं श्रीहनुमान।
रावण, कुम्भकरण व विभीषण ने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिये कठिन तपस्या की थी। जब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर दर्शन दिये तो सबने अपना - अपना वरदान माँगा। रावण ने माँगा कि वो अमर हो जाये। ब्रह्माजी न कहा - अमरता देना उनके बस की बात नहीं। रावण के पुनः अनुरोध पर ब्रह्माजी ने रावण को एक बाण देते हुये कहा कि यह बाण लो, और मैं इतना कर सकता हूँ कि जब तक यह बाण तुम्हारी नाभी में नहीं लगेगा तब तक तुम्हारा अंत नहीं होगा। रावण ने वो बाण लिया और अपने राजमहल के अंदर अपने राज-सिंहासन के ठीक सामने वाले खम्बे के अन्दर चिनवा दिया।
युद्ध में भगवान श्रीरामचन्द्र जब अपने बाण से रावण का सिर उसके शरीर से अलग कर देते, तब रावण का मस्तक ज़मीन पर गिर जाता, किन्तु कुछ ही पल में पुनः अपने स्थान से जुड़ जाता। बहुत बार जब ऐसा हुआ तब विभीषण ने रावण के न मरने का कारण बताया। सब कुछ सुनकर हनुमानजी ने कहा कि आप चिन्ता न करें व यह बतायें कि बाण कहाँ पर है। विभीषणजी ने कहा की यह तो मुझे मालूम नहीं पर यह भेद रावण या उसकी पत्नी मंदोदरी ही जानती है कि वह बाण कहाँ पर है।
बस फिर क्या था, भगवान से आज्ञा लेकर, हनुमानजी ने ब्राह्मण का रूप धारण किया और महान ज्योतिषाचार्य के रूप में, लंका के प्रसिद्ध स्थानों पर भ्रमण करने लगे। ज्योतिषाचार्य के रूप में हनुमानजी जहाँ पर भी जाते, व्यतिरेक भाव से लंका वासियों का भविष्य बताते तथा साथ ही साथ हरेक को रावण की महिमा सुनाते।

यह सुनते ही हनुमानजी असली स्वरूप में आ गये व 'जय श्रीराम' के नारे के साथ एक घुँसे से उन्होंने वह खम्बा तोड़ कर उसमें से बाण निकाल लिया और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को लाकर दे दिया, और उसी से रावण का वध हुआ।
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