सोमवार, 6 जुलाई 2015

......एक लड़की है जिसे कोई छेड़ रहा है और आप यह सोच कर कुछ न करें कि ये तो आत्मा है.....

एक कक्षा में अध्यापक विद्यार्थियों को अच्छे व्यवहार का पाठ पढ़ा रहा था। वह बता रहा था कि कैसे जीवन में सदाचार का पालन करना चाहिये। बुज़ुर्गों, अन्धों, असहायों की सहायता करनी चाहिये। ज़रुरतमन्दों को सड़क पार करवानी चाहिये, इत्यादि। विद्यार्थी बड़ी तल्लीनता से उनकी बात सुन रहे थे। 

अगले दिन जब वो कक्षा में पढ़ा रहे थे तो अचानक 10-12 विद्यार्थी लेट आये व अन्दर आने की आज्ञा मांगने लगे। कक्षा में इस तरह देरी से आने का कारण पूछने पर उनमें से एक छात्र
बोला - सर! आपके ही पढ़ाये पाठ की वजह से हम देर से आये। और तो और आज हमने परोपकार की वजह से ही गालियां खायीं व पत्थर खाते-खाते बचे। अध्यापक यह सब सुनकर बहुत हैरान हुआ और उसने पूछा कि ऐसा क्या पढ़ाया मैंने? सभी छात्र बोले - आपने कल कहा था की परोपकार करना चाहिये। बड़े-बूढ़ों की सहायता करनी चाहिये।

तो?

आज हम सब जब बस में चढ़ रहे थे तो हमने देखा एक बूढ़ी माता लाठी लिये सड़क के किनारे
खड़ी है। वह आते-जाते ट्रैफिक को इधर-उधर देख रही है। ट्रैफिक रुक नहीं रहा। हार्न इत्यादि का शोर भी बहुत था। तब भी हमने आव न देखा ताव, बस आपके पढ़ाये पाठ को याद करते हुये, बैग बस में रखे और बूढ़ी माता के पास चले गये। फिर हमने एक के साथ एक खड़े होकर मानव चेन बनाई और सड़क पर चलता ट्रैफिक रुकवा दिया। ऐसे बीच में खड़े हो जाने के कारण सभी वाहन चालक हार्न पे हार्न बजाने लगे। हमने आनन-फानन बूढ़ी माताजी को पकड़ा और उन्हें झट से सड़क पार करवा दी। वह बूढ़ी माता कुछ बोलती जा रही थी पर हमने गाड़ियों के हल्ले-गुल्ले में उनकी
एक न सुनी। जब हम सब सड़क पार हो गये तो ट्रैफिक चल पड़ा। शोर कुछ धीमा पड़ गया। वह बूढ़ी माता हमें भला-बुरा कहने लगी व इधर-उधर देखने लगी। हमें गालियां देते हुये वो सड़क के किनारे पर पड़े पत्थर ढूँढने लगी।  हम तो अपनी खैर मनाते हुए वहाँ से भागे और बस में चढ़ कर यहाँ आ गये।  

टीचर ने कहा - समझ में नहीं आया कि तुमने तो अच्छा काम किया फिर वो बूढ़ी माता तुमको गाली क्यों दे रही थी व पत्थर क्यों मारना चाहती थी?

तभी तपाक से एक बालक बोला - सर! वो माता सड़क पार ही नहीं करना चाहती थी।

यह घटना हास्य-विनोद की है, परन्तु हमारी रोज़ाना की ज़िन्दगी में कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है जब हमें परोपकार करने का अवसर प्राप्त होता है। तो हमें ऐसे मौके त्यागने नहीं चाहियें।

साथ ही साथ हमें भगवान द्वारा दी गयी बुद्धि का प्रयोग भी करना चाहिये जिससे उपरोक्त बालकों वाली स्थिति पैदा ही न हो।

कभी-कभी ऐस सुनने को मिलता है कि साधु-संत समाज़ तो कहता है कि हम सब भगवान के हैं, आत्मा हैं, हमें सब छोड़ कर चले जाना है, तो फिर ऐसे व्यवहार की क्या ज़रूरत है?
मसलन आप किसी मार्ग पर चल रहे हैं और आपके पास या साथ में एक लड़की है जिसे कोई छेड़ रहा है। आप यह सोच कर कुछ न करें कि ये तो आत्मा है, शरीर तो नश्वर है। इसलिये प्रतिकार की क्या आवश्यक्ता है? या हम सोचें ज़रूर इसने भी पिछले जन्म में यही पाप किया होगा, ये उसका ही फल पा रही है। यहाँ पर यह सोच गलत है।

यह ठीक है हम आत्मा हैं, शरीर एक दिन छोड़ देना है, परन्तु जैसे अपने आपको हमें आत्मा समझना हमारा आत्मिक धर्म है उसी प्रकार उस गलत कार्य का प्रतिकार करना अथवा परोपकार करना हमारा शरीरिक धर्म है। उसे हम त्याग नहीं सकते। जब तक शरीर है, समाज है, देश है, तब तक उनके प्रति हमारे जो धर्म हैं वो निभाने ही होंगे। अथवा समाज़ की व्यवस्था ही बिगड़ जायेगी।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमें भगवान का भजन रूपी आत्म-धर्म या परम धर्म का पालन तो करना ही होगा। साथ ही साथ हमें अपने शरीर, परिवार, समाज़ व राष्ट्र आदि के धर्मों का पालन भी करना होगा।

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