अपने - अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु कर्मी, ज्ञानी - योगी एवं भक्तों को चातुर्मास्य (चार महीने) व्रत का पालन करना चाहिये।
यह एक प्रकार की तपस्या है। परन्तु इसमें साधना की विधि में भिन्नता होती है क्योंकि कर्मी, ज्ञानी, योगी व भक्तों के लक्ष्यों में अन्तर होता है।
भक्तों की साधना का चरम लक्ष्य तो भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम प्राप्त करना होता है। जबकि कर्मियों, ज्ञानियों व योगियों की साधना का लक्ष्य दुनियाँ के भोग, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ अथवा मोक्ष होता है। भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु व उनके निज जनों ने हमें इस व्रत का पालन करने की शिक्षा प्रदान करने के लिये ही चातुर्मास्य व्रत का पालन किया।
श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ने पुरुषोत्तम धाम तथा श्रीरंगनाथ धाम में सारा समय श्रीकृष्ण-कथा में बिताते हुये चातुर्मास्य व्रत का पालन किया था।
इस व्रत के पालन में श्रीकृष्ण के दिव्य नाम, रूप, गुण, लीला का मुख्य रूप से श्रवण व कीर्तन करना चाहिये।
इसके साथ हमें यथा सम्भव व्यवहारिक रूप से शास्त्रों में दिये गये इस मास के मुख्य नियमों का भी पालन करना चाहिये।
लौकी, बीन्स, बैंगन, राजमा, उड़द दाल, पटल, सोयाबीन, इत्यादि को खाना चारो महीने मना है।
इसके अलावा, श्रावण (पहला महीना) के महीने में हरे पत्ते की सब्जियाँ, भाद्र (दूसरा महीना) के महीने में दही, आश्विन (तीसरा महीना) के महीने में दूध तथा कार्तिक (चौथा महीना) के महीने में सभी प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन और सरसों को खाना-पीना मना है।
और भी नियम हैं, जिन्हें अपने आचार्य से व्यक्तिगत रूप से पूछा जा सकता है।
वैसे चातुर्मास्य का प्रारम्भ 27 जुलाई (जो एकादशी से व्रत प्रारम्भ करते हैं) या 31 जुलाई (जो पूर्णिमा से व्रत प्रारम्भ करते हैं) से है और इसकी समाप्ति 22 नवम्बर (एकादशी) अथवा 25 नवम्बर (पूर्णिमा) के दिन होगी।
देवशयनी एकादशी से प्रारम्भ होकर देवोत्थान एकादाशी अर्थात् चार महीने तक चलने वाला श्रीहरि का शयन काल, चतुर्मास व्रत कहलाता है। भगवान के भक्त इन दिनों श्रीहरिनाम संकीर्तन व भगवद्कथा के श्रवण व कीर्तन में ही जोर देते हैं व हरिकथा, श्रवण-कीर्तनादि करते हुए ही चतुर्मास व्रत का पालन करते हैं।
आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष में जब सूर्य कर्क राशि में रहता है, तब जगत्पति भगवान मधुसूदन शयन करते हैं और जब सूर्य तुला राशि में आता है तब भगवान की जागरण लीला होती है।
आषाढ़ महीने की शुक्ल-पक्षीय एकादशी से ही चातुर्मास्य व्रत आरम्भ करना चाहिए। वैसे यह चार महीने तक चलने वाला चातुर्मास्य व्रत इस शयन एकादशी के इलावा द्वादशी, पुर्णमासी, अष्टमी अथवा संक्रान्ति के दिन से ही प्रारम्भ किया जा सकता है।
जो लोग भगवान श्रीहरि का भजन-स्मरण करते हुये चातुर्मास्य व्रत का पालन करते हैं, वे सूर्य के समान प्रकाशमान विमान में चढ़कर, विष्णुलोक की प्राप्ति कर लेते हैं।
चातुर्मास्य व्रत में विष्णु-मन्दिर मार्जन, पुष्प-लता आदि द्वारा मन्दिर श्रृंगार तथा व्रत स्माप्ति पर ब्राह्मण भोजन अवश्य कराना चाहिये।
व्रत करने वाले भक्तों को चाहिए कि वे भगवान जनार्दन देव के शयन के इन चार महीनों पर भुमि-शयन करें।
चातुर्मास्य व्रत में जो व्यक्ति गुड़ के भोजन का त्याग करता है, उसके पुत्र-पौत्र आदि परिवार की वृद्धि होती है। जो व्यक्ति चातुर्मास्य-व्रत में कषैला, कड़वा, खट्टा, मीठा, लवण, कटु आदि छः प्रकार के रसों को त्यग देता है, उसके शरीर की कुरूपता एवं शरीर की दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है।
जो ताम्बूल त्याग देता है, वह निरोगी होता है।
जो चार महीनों में अपने केश व नाखून नहीं काटता, वह विष्णु भगवान के चरणकमलों को स्पर्श करने का अधिकार-लाभ प्राप्त करता है।
इस चातुर्मास व्रत के समय भगवान विष्णुजी के मन्दिर की परिक्रमा करने वाला हंसयुक्त विमान में स्वार होकर विष्णुलोक पहुँच जाता है।
धन्यवाद for such valuable information !
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