श्रीस्कन्द पुराण व श्रीअग्नि पुराण के प्रमाणों के आधार पर श्रील जीव गोस्वामी जी ने बताया की भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के पार्षद श्रीजगदानन्द पण्डित जी (आप श्रीकृष्ण लीला में श्रीमती सत्यभामा जी हैं) ने श्रीप्रेम विवर्त में लिखा --
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी कहते हैं कि भक्ति मार्ग का एक महत्वपूर्ण अंग है -- एकादशी का व्रत ।
एकादशी के व्रत का पालन नहीं करने से एकादशी का अपमान होता है, और उससे मनुष्य को नुकसान ही होता है।
भक्त लोग चूंकि प्रसाद ही खाते हैं, अतः एकादशी के प्रसाद को सम्मानपूर्वक रख लें, उसे दूसरे दिन ग्रहण करें, क्योंकि अगले दिन एकादशी नहीं होती। जो वैष्णव हैं, वे हरिवासर (एकादशी) तिथि को केवल श्रीकृष्णनामामृत से ही तृप्त होते हैं। वे किसी अन्य रस की ओर न देखते हैं और न ही एकादशी के दिन कोई और बात करते हैं ।
एकादशी के दिन वैष्णव लोग सभी प्रकार के भोगों का वर्जन करते हैं।
शुद्ध वैष्णव लोग नित्य प्रति तो केवल प्रसाद का ही भोजन करते हैं। जो भगवान को भोग नहीं लगा, जो प्रसाद नहीं है, उसे वैष्णव लोग खाते ही नहीं हैं।
जब शुद्ध एकादशी तिथि आती है, तब वैष्णवजन निराहार रहते हैं व अगले दिन प्रसाद ग्रहण करके व्रत का पारण करते हैं। जो निराहार नहीं रह पाते, वे फल आदि से अनुकल्प जरूर करते हैं, परन्तु उसमें अन्न कहीं नहीं होता।
जो अवैष्णव हैं, वे तो दिन-रात भोगों में मस्त रहते हैं और पापी लोगों के साथ प्रसाद के बहाने दिन-रात कुछ न कुछ खाते रहते हैं और एकादशी के व्रत को नहीं मानते हैं।
श्रीजगदानन्द जी कहते हैं कि मेरा तो यह कहना है कि भक्ति के अंगों का पालन करना वैष्णव सदाचार है । अतः आप सभी भक्ति का सम्मान करो, इससे भक्ति देवी की कृपा प्राप्त होगी। अवैष्णवों का संग त्यागकर, एकादशी व्रत का पालन करो और इस दिन खूब हरिनाम करो।
श्रीजगदानन्द जी कहते हैं कि आपस में विरोध न करके प्रसाद-सेवन और हरिवासर पालन के अन्तर को समझो, एक बार को मानना और दूसरी को न मानना, ठीक नहीं है। जो ऐसा करता है उसे आप बिल्कुल बोध समझना। भक्ति के जो अंग हैं, उनको पालन करने के लिए जिस स्थान, जिस समय और जिस विधि को बताया गया है, उसी के अनुसार उनको पालन करते हुए भजन में लगे रहना चाहिए।
भक्ति के सभी अंगों के स्वामी तो व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही हैं, अतः जैसे वे सन्तुष्ट होते हों, उसी प्रकार के नियमों का पालन करना चाहिए।
-- श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी।
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी कहते हैं कि भक्ति मार्ग का एक महत्वपूर्ण अंग है -- एकादशी का व्रत ।
एकादशी के व्रत का पालन नहीं करने से एकादशी का अपमान होता है, और उससे मनुष्य को नुकसान ही होता है।
भक्त लोग चूंकि प्रसाद ही खाते हैं, अतः एकादशी के प्रसाद को सम्मानपूर्वक रख लें, उसे दूसरे दिन ग्रहण करें, क्योंकि अगले दिन एकादशी नहीं होती। जो वैष्णव हैं, वे हरिवासर (एकादशी) तिथि को केवल श्रीकृष्णनामामृत से ही तृप्त होते हैं। वे किसी अन्य रस की ओर न देखते हैं और न ही एकादशी के दिन कोई और बात करते हैं ।
एकादशी के दिन वैष्णव लोग सभी प्रकार के भोगों का वर्जन करते हैं।
शुद्ध वैष्णव लोग नित्य प्रति तो केवल प्रसाद का ही भोजन करते हैं। जो भगवान को भोग नहीं लगा, जो प्रसाद नहीं है, उसे वैष्णव लोग खाते ही नहीं हैं।
जब शुद्ध एकादशी तिथि आती है, तब वैष्णवजन निराहार रहते हैं व अगले दिन प्रसाद ग्रहण करके व्रत का पारण करते हैं। जो निराहार नहीं रह पाते, वे फल आदि से अनुकल्प जरूर करते हैं, परन्तु उसमें अन्न कहीं नहीं होता।
जो अवैष्णव हैं, वे तो दिन-रात भोगों में मस्त रहते हैं और पापी लोगों के साथ प्रसाद के बहाने दिन-रात कुछ न कुछ खाते रहते हैं और एकादशी के व्रत को नहीं मानते हैं।
श्रीजगदानन्द जी कहते हैं कि मेरा तो यह कहना है कि भक्ति के अंगों का पालन करना वैष्णव सदाचार है । अतः आप सभी भक्ति का सम्मान करो, इससे भक्ति देवी की कृपा प्राप्त होगी। अवैष्णवों का संग त्यागकर, एकादशी व्रत का पालन करो और इस दिन खूब हरिनाम करो।
श्रीजगदानन्द जी कहते हैं कि आपस में विरोध न करके प्रसाद-सेवन और हरिवासर पालन के अन्तर को समझो, एक बार को मानना और दूसरी को न मानना, ठीक नहीं है। जो ऐसा करता है उसे आप बिल्कुल बोध समझना। भक्ति के जो अंग हैं, उनको पालन करने के लिए जिस स्थान, जिस समय और जिस विधि को बताया गया है, उसी के अनुसार उनको पालन करते हुए भजन में लगे रहना चाहिए।
भक्ति के सभी अंगों के स्वामी तो व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही हैं, अतः जैसे वे सन्तुष्ट होते हों, उसी प्रकार के नियमों का पालन करना चाहिए।
-- श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी।
--
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें