शुक्रवार, 27 मार्च 2015

भगवान श्रीराम की यह श्रीमूर्ति, श्रीराम के आने से पहले ही पृथ्वी पर आ गयी थी।

इस्कान के संस्थापक आचार्य परमपूज्यपाद नित्यलीलाप्रविष्ट श्रीश्रीमद् भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज जी ने लिखा है कि आध्यात्म रामायण के 1-15 अध्याय में वर्णन आता है कि भगवान श्रीराम त्रेतायुग में जब इस पृथ्वी पर लीला कर रहे थे तब उनके राज्य में एक भक्त ब्राह्मण रहता था।
उसका नियम था कि वह प्रतिदिन श्रीराम को प्रणाम करने आता था।
प्रणाम करने के उपरान्त ही वह कुछ खाता था। जब कभी श्रीराम के दर्शन न होते तो उस दिन उपवास करता था। कई बार ऐसा होता था कि भगवान भ्रमण हेतु राज्य से बाहर जाते, तो वह ब्राह्मण उस सभी दिन कुछ नहीं खाता था, और तब तक नहीं खाता था जब तक उसे श्रीराम के दर्शन न हो जायें।

भक्त-भगवान की लीला है और भगवान परीक्षा तो लेते ही हैं।

पतितपावन श्रीश्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराजजी कहते हैं
कि जैसे लुहार अपना औज़ार बनाने से पहले लोहे को आग की भट्टी में लाल करता है, फिर उसे तब तक हथौड़ों से पीटता है जब तक वह उसे अपने औज़ार के रूप में तबदील न कर ले, उसी प्रकार भगवान भी किसी जीव / प्राणी को अपनी नित्य सेवा में लेने से पहले कष्ट-रूपी थपेड़ों से उसे लाल करते हैं व बदनामी, इत्यादि की मार से अपने अनुसार ढालते हैं। 
इसी कारण से भगवान श्रीराम उस ब्राह्मण की परीक्षा लेते रहे। अगर वे नौ दिन के लिये राज्य से बाहर जाते तो वो ब्राह्मण नौ दिन बिना कुछ खाये-पीये बिताता। 

किसी ने ठीक ही लिखा है - 'भक्त प्रेम के पाले पड़कर प्रभु को नियम बदलते देखा, अपना मान टले टल जाये, भक्त का मान न टलते देखा।'
अन्ततः प्रभु पसीजे।

ब्राह्मण का तप देखकर उन्होंने लक्ष्मणजी को कहा कि वे उस ब्राह्मण को श्रीराम व सीताजी की श्रीमूर्ति दे दें। 

ब्राह्मण वह श्रीमुर्ति प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुआ। अन्त समय तक वह उन मूर्तियों के रूप में भगवान श्रीसीता-रामजी की सेवा-अर्चना करता रहा। अपना अन्त समय निकट आया देख उसने वो श्रीमूर्ति श्रीहनुमानजी को दे दीं।

श्रीहनुमानजी उन मूर्तियों को एक झोले में रख कर तथा उसे अपने गले में लटका कर घूमते थे व समय-समय पर उन विग्रहों की सेवा-अर्चना करते थे। जब उन्होंने गन्ध-मादन पर्वत पर जाने का निश्चय किया तो उन्होंने वो विग्रह अर्जुन के बड़े भाई भीम को दे दिये। भीम ने उन्हें अपने महल के मन्दिर में रखा व स्वयं पूजा-अर्चना करने लगे। पाण्डवों के वशंज क्षेमकान्तजी ने उन विग्रहों की पूजा-अर्चना की। फिर कालक्रम से वो विग्रह ओड़ीसा के राजा गजपति के यहाँ आये। जहाँ से श्रीमध्वाचार्यजी के शिष्य श्रीनरहरि तीर्थजी ने उन्हें प्राप्त किया। वो विग्रह श्रीराम के प्राकट्य से पहले राजा इक्ष्वाकु द्वारा पूजित थे। श्रीलक्ष्मणजी ने उन विग्रहों (श्रीमूर्ति) की पूजा की थी। वो विग्रह अभी भी उडूपी में पूजित हैं।

सर्व-विदित है की श्रीमती मीराजी, गिरधर-गोपालजी के मन्दिर में बैठ कर घंटों उनसे बातें करतीं रहतीं थीं। श्रीचैतन्य-चरितामृत नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ के अनुसार, सरल हृदय वाले ब्राह्मण की गवाही देने के लिये गोपालजी की मूर्ति वृन्दावन से ओड़ीसा गयी और गवाही दी। यह  श्रीमूर्ति आज भी साक्षी-गोपाल के नाम से ओड़ीसा राज्य में विराजित हैं और वहाँ का रेलवे-स्टेशन साक्षी-गोपाल रेलवे-स्टेशन के नाम से प्रसिद्ध है। 

श्रीवाल्मिकीजी ने रामायण सोच-सोच कर या देख-देख कर नहीं लिखी। उन्होंने रामायण, भगवान श्रीराम के आने से हज़ारों वर्ष पूर्व लिख दी थी। 

भगवान अद्भुत, उनकी लीलायें भी अद्भुत। दिव्य भगवान के दिव्य रूप, दिव्य गुण, दिव्य लीला, दिव्य धाम, दिव्य परिकर व दिव्य मूर्ति को हम अपनी भौतिक इन्द्रियों से कैसे समझ-देख पायेंगे।

भगवान ने अर्जुन को और ॠषि वेद-व्यासजी ने संजय को दिव्य - दृष्टि दी थी, तभी वे भगवान का दिव्य रूप देख पाये थे। जो वस्तु हमारी सीमित इन्द्रियों की सीमा में न हो, उसका अर्थ यह नहीं है कि वह वस्तु है ही नहीं। कुरुक्षेत्र के मैदान पर हज़ारों-करोड़ों की संख्या में लोग थे, परन्तु वे विराट रूप नहीं देख पाये थे।
श्रीराम चरित मानस में गोस्वामी तुलसी दासजी ने लिखा है, 'सोई जानत, जिन देहु जनाई', अर्थात भगवान को वही जान सकता है या देख सकता है, जिनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान अपने आप को जनायें व अपना दिव्य दर्शन करवायें।

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