श्रीचैतन्य चरितामृत के अनुसार --
'कुष्ठी-विप्रेर रमणी, पतिव्रता शिरोमणी,
पति लागि कैला वैश्यार सेवा।
स्तम्भिल सूर्येर गति, जियाइल मृत पति,
तुष्ट कैल मुख्य तीन देवा॥'
जगद्गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने इसकी व्याख्या में लिखा --
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'आदित्य पुराण और मार्कण्डेय पुराण एवं पद्म-पुराण में लिखा है कि एक बार एक ब्राह्मण जो कोढ़ नामक रोग से ग्रस्त था, किसी वेश्या के रूप पर आसक्त हो गया। किन्तु वेश्या उसके पास भी नहीं आयी। उस कोढ़ी ब्राह्मण की पतिव्रता पत्नी को जब अपने पति की इच्छा क पता चला तो उसने अपने अयोग्य पति की वासना को तृप्त करने के लिए पाप-निकेतन वेश्या के भवन में स्फाई इत्यादि करके पति को वेश्या के साथ मिलवाने का प्रयास किया था।
जब वेश्या ने मिलना स्वीकार कर लिया तो पतिव्रता ब्राह्मणी अपने कोढ़ी पति को उसकी इच्छा के अनुसार वेश्या के घर में ले गयी और उसे वहीं छोड़ कर वापिस आ गयी।
अपनी पतिव्रता पत्नी की ऐसी निष्ठा देख कर उस कोढ़ी, पापिष्ठ ब्राह्मण का मन बदल गया। उसी रात्री, पाप की इच्छा को छोड़ कर वह वापिस अपने घर की ओर चल दिया।
मार्ग में अधिक अंधेरा होने के कारण उसका पाँव माण्डव्य ॠषि के शरीर
से स्पर्श हो गया।
इस पर माण्डव्य ॠषि ने उसे अभिशाप दे दिया।
पतिव्रता-ब्राह्मणी को जब पता चला कि उसके पति के द्वारा अनजाने में किये गये कर्म से समाधि भंग हो जाने के कारण ॠषि ने 'सूर्योदय के साथ-साथ उसके पति के प्राण निकल जायेंगे' -- ऐसा अभिशाप दे दिया है एवं उस श्राप के फलस्वरूप पतिव्रता होते हुये भी उसका विधवा होना अवश्यम्भावी है, तब उसने भी प्रतिशोध के रुप में सूर्योदय को रोकने की प्रतिज्ञा कर ली ।
उसका ऐसा प्रयास देखकर, श्रीब्रह्मा, श्रीविष्णु और श्रीशिव - ये तीनों प्रधान देव उसके पास आये। उन्होंने पतिव्रता की पतिप्रायणता से सन्तुष्ट होकर उसके पति के पुनः नव-जीवन की व्यवस्था की।
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तात्पर्य यह है कि इस प्रकार अपने स्वार्थ रहित केवल - पातिव्रत्य (केवल सेव्य-सुख वाँछा) ही शुद्ध भक्त के लिए उचित है।'
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के अमृत-प्रवाह भाष्य में लिखित तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण भगवान के प्रति पतिव्रता का दृढ़ भाव ही जीव का श्रृंगार - रसोद्गत उत्तम धर्म है।
'कुष्ठी-विप्रेर रमणी, पतिव्रता शिरोमणी,
पति लागि कैला वैश्यार सेवा।
स्तम्भिल सूर्येर गति, जियाइल मृत पति,
तुष्ट कैल मुख्य तीन देवा॥'
जगद्गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने इसकी व्याख्या में लिखा --
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'आदित्य पुराण और मार्कण्डेय पुराण एवं पद्म-पुराण में लिखा है कि एक बार एक ब्राह्मण जो कोढ़ नामक रोग से ग्रस्त था, किसी वेश्या के रूप पर आसक्त हो गया। किन्तु वेश्या उसके पास भी नहीं आयी। उस कोढ़ी ब्राह्मण की पतिव्रता पत्नी को जब अपने पति की इच्छा क पता चला तो उसने अपने अयोग्य पति की वासना को तृप्त करने के लिए पाप-निकेतन वेश्या के भवन में स्फाई इत्यादि करके पति को वेश्या के साथ मिलवाने का प्रयास किया था।
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अपनी पतिव्रता पत्नी की ऐसी निष्ठा देख कर उस कोढ़ी, पापिष्ठ ब्राह्मण का मन बदल गया। उसी रात्री, पाप की इच्छा को छोड़ कर वह वापिस अपने घर की ओर चल दिया।
मार्ग में अधिक अंधेरा होने के कारण उसका पाँव माण्डव्य ॠषि के शरीर
से स्पर्श हो गया।
इस पर माण्डव्य ॠषि ने उसे अभिशाप दे दिया।
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उसका ऐसा प्रयास देखकर, श्रीब्रह्मा, श्रीविष्णु और श्रीशिव - ये तीनों प्रधान देव उसके पास आये। उन्होंने पतिव्रता की पतिप्रायणता से सन्तुष्ट होकर उसके पति के पुनः नव-जीवन की व्यवस्था की।
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तात्पर्य यह है कि इस प्रकार अपने स्वार्थ रहित केवल - पातिव्रत्य (केवल सेव्य-सुख वाँछा) ही शुद्ध भक्त के लिए उचित है।'
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