मथुरा -
मधु नाम का एक दैत्य, श्रीमहादेव क भक्त था। उसने कठोर तपस्या करके श्रीमहादेव को प्रसन्न कर, एक अद्भुत शक्तिशाली त्रिशूल प्राप्त किया था। साथ ही साथ यय वर भी प्राप्त किया था कि यह त्रिशूल जब तक उसके पुत्र के पास रहेगा तब तक कोई भी उसे मार न सकेगा। मधु दैत्य की पत्नी का नाम कुम्भ्नसी था। जब यह वरदान उसे मिला था, तन उसका कोई पुत्र नहीं था।
यथा समय उसे पुत्र की प्राप्ति हुई, और उसने पुत्र का नाम रखा लवण।
लवण जैसे जैसे बड़ा होता गया, वैसे-वैसे ही अत्याचारी होता चला गया। मधु दैत्य जब अपने पुत्र के अत्याचारों को न सहन कर सका तो श्रीमहादेव जी द्वारा दिये त्रिशूल को अपने पुत्र लवण के हाथ में थमाकर स्वयं वरुणालय चला गया।
त्रिशूल को पाकर लवण दैत्य और भी उत्पात करने लगा, और उसने तपोवन वासी ॠषियों को भी नहीं बक्शा।
और कोई उपाय न देख ॠषि भगवान श्रीरामचन्द्र भगवान के पास पहुँच
गये और उन्होंने लवण दैत्य के अत्याचारों से अवगत करवाया। ॠषियों के दुःख सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने लवणदैत्य के दमन के लिये शत्रुघनजी को भेजा।
शत्रुघन जी व लवण के बीच घमासान युद्ध हुआ। अनेक कष्ट तथा कौशल के बाद अन्त में लवण दैत्य का शत्रुघनजी ने वध कर दिया।
दैत्य के वध से सब प्रसन्न हो गये, देवता श्रीशत्रुघन जी को वरदान देने आये।
श्रीशत्रुघन जी ने कहा कि यदि आप वरदान देना चाहते हैं तो यह वरदान दीजिये कि देवनिर्मित ये मधुपुरी, मधुरा (मथुरा) शीघ्र ही समृद्ध हो जाये तथा राजधानी में बदल जाये। इसके बाद शत्रुघन जी ने यहाँ सेना इत्यादि लाकर बड़े सुन्दर ढंग से नागरिकों को बसाया तथा ये सेनों का देश कहलाया।
रामायण में मथुरा के स्थान पर मधुरा या मधुपुरी नामों का उल्लेख है। किन्तु महाभारत आदि पुराणों में मथुरा नाम ही पाया जाता है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि रामायण में उल्लेखित्त मधुपुरी या मधुरा ही
बाद में मथुरा के नाम से प्रसिद्ध हुई।
शत्रुघन जी के वंश के लोप हो जाने के बाद मथुरा में शूरसेनों का आधिपत्य हो गया। श्रीमद् भागवतम् के प्रमाणों के अनुसार ज्ञात होता है कि शूरसेन के वंश में ही यदुकुल तिलक श्रीकृष्ण का आविर्भाव हुआ।
मधु नाम का एक दैत्य, श्रीमहादेव क भक्त था। उसने कठोर तपस्या करके श्रीमहादेव को प्रसन्न कर, एक अद्भुत शक्तिशाली त्रिशूल प्राप्त किया था। साथ ही साथ यय वर भी प्राप्त किया था कि यह त्रिशूल जब तक उसके पुत्र के पास रहेगा तब तक कोई भी उसे मार न सकेगा। मधु दैत्य की पत्नी का नाम कुम्भ्नसी था। जब यह वरदान उसे मिला था, तन उसका कोई पुत्र नहीं था।
यथा समय उसे पुत्र की प्राप्ति हुई, और उसने पुत्र का नाम रखा लवण।
लवण जैसे जैसे बड़ा होता गया, वैसे-वैसे ही अत्याचारी होता चला गया। मधु दैत्य जब अपने पुत्र के अत्याचारों को न सहन कर सका तो श्रीमहादेव जी द्वारा दिये त्रिशूल को अपने पुत्र लवण के हाथ में थमाकर स्वयं वरुणालय चला गया।
त्रिशूल को पाकर लवण दैत्य और भी उत्पात करने लगा, और उसने तपोवन वासी ॠषियों को भी नहीं बक्शा।
और कोई उपाय न देख ॠषि भगवान श्रीरामचन्द्र भगवान के पास पहुँच
गये और उन्होंने लवण दैत्य के अत्याचारों से अवगत करवाया। ॠषियों के दुःख सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने लवणदैत्य के दमन के लिये शत्रुघनजी को भेजा।
शत्रुघन जी व लवण के बीच घमासान युद्ध हुआ। अनेक कष्ट तथा कौशल के बाद अन्त में लवण दैत्य का शत्रुघनजी ने वध कर दिया।
दैत्य के वध से सब प्रसन्न हो गये, देवता श्रीशत्रुघन जी को वरदान देने आये।
श्रीशत्रुघन जी ने कहा कि यदि आप वरदान देना चाहते हैं तो यह वरदान दीजिये कि देवनिर्मित ये मधुपुरी, मधुरा (मथुरा) शीघ्र ही समृद्ध हो जाये तथा राजधानी में बदल जाये। इसके बाद शत्रुघन जी ने यहाँ सेना इत्यादि लाकर बड़े सुन्दर ढंग से नागरिकों को बसाया तथा ये सेनों का देश कहलाया।
रामायण में मथुरा के स्थान पर मधुरा या मधुपुरी नामों का उल्लेख है। किन्तु महाभारत आदि पुराणों में मथुरा नाम ही पाया जाता है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि रामायण में उल्लेखित्त मधुपुरी या मधुरा ही
बाद में मथुरा के नाम से प्रसिद्ध हुई।
शत्रुघन जी के वंश के लोप हो जाने के बाद मथुरा में शूरसेनों का आधिपत्य हो गया। श्रीमद् भागवतम् के प्रमाणों के अनुसार ज्ञात होता है कि शूरसेन के वंश में ही यदुकुल तिलक श्रीकृष्ण का आविर्भाव हुआ।

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