रविवार, 25 मई 2014

सत्यभामा जी ने एकादशी व्रत के बारे में कहा……

श्रीस्कन्द पुराण व श्रीअग्नि पुराण  के प्रमाणों के आधार पर श्रील जीव गोस्वामी जी ने बताया कि भक्ति मार्ग का एक महत्वपूर्ण अंग है -- एकादशी का व्रत । 

दूसरी ओर एकादशी के व्रत का पालन न करने से एकादशी का अपमान होता है, और उससे मनुष्य को नुकसान ही होता है।
भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के पार्षद श्रीजगदानन्द पण्डित जी, जो कि श्रीकृष्ण लीला में श्रीमती सत्यभामा जी हैं, ने 'प्रेम विवर्त' नामक ग्रन्थ में लिखा है --

एकादशी के दिन यदि कोई आपको चावल, दाल, इत्यादि का प्रसाद दे तो उसको सम्मानपूर्वक रख लें और दूसरे दिन ग्रहण करें । जो वैष्णव हैं, वे हरिवासर (एकादशी) तिथि को केवल श्रीकृष्णनामामृत से ही तृप्त होते हैं। जब शुद्ध एकादशी तिथि आती है, तब वैष्णवजन निराहार रहते हैं । जो निराहार नहीं रह पाते, वे फल, जल व दूध आदि ग्रहण कर लेते हैं। परन्तु चावल, दाल, रोटी, इत्यादि जिससे व्रत नष्ट होता है, वो नहीं खाते।

एकादशी के दिन वैष्णव लोग सभी प्रकार के भोगों का वर्जन करते हैं।
            शुद्ध वैष्णव लोग नित्य प्रति तो केवल प्रसाद का ही भोजन करते हैं। जो भगवान को भोग नहीं लगा, जो प्रसाद नहीं है, उसे वैष्णव लोग खाते ही नहीं हैं। 
जो अवैष्णव हैं, वे तो दिन-रात भोगों में मस्त रहते हैं और पापी लोगों के साथ दिन-रात कुछ न कुछ खाते रहते हैं । एकादशी व्रत के महत्व को नहीं मानते हैं।

श्रीजगदानन्द जी कहते हैं कि मेरा तो यह कहना है कि भक्ति के अंगों का पालन करना वैष्णव सदाचार है । अतः आप सभी भक्ति का सम्मान करो, इससे भक्ति देवी की कृपा प्राप्त होगी। अवैष्णवों का संग त्यागकर, एकादशी व्रत का पालन करो और इस दिन खूब हरिनाम करो।
बहुत से लोगों का कहना है कि भगवान का प्रसाद जैसे ही आपको मिले तुरन्त खा लेना चाहिए। 

      यह ठीक है कि प्रसाद पाना भक्ति का एक अंग है। किन्तु दूसरी ओर एकादशी व्रत पालन करना भी भगवान की भक्ति का ही अंग है। अतः हमें आपस में विरोध न करके प्रसाद-सेवन और हरिवासर पालन के अन्तर को समझना चाहिए । 

शास्त्र की एक बात को मानना और दूसरी को न मानना, यह ठीक नहीं है। एकादशी के दिन, भगवान के चावल, दाल, इत्यादि का जो प्रसाद आपको मिले उसे प्रणाम करके सम्मान के साथ रख दें और निष्ठा के साथ एकादशी व्रत का पालन करें । अगले दिन श्रद्धा के साथ भगवान के चावल, दाल, इत्यादि का प्रसाद पा लें। ऐसा करने से शास्त्र की दोनों आज्ञाओं का पालन होगा। अर्थात् एकादशी का व्रत करना रूपी भक्ति भी एवं भगवद् प्रसाद पाना रूपी भक्ति का पालन भी हो जायेगा।

श्रीजगदानन्द जी जो कि सत्यभामा जी के अवतार हैं, कहते हैं कि भक्ति के सभी अंगों के स्वामी तो व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही हैं, अतः जैसे वे सन्तुष्ट होते हों, हमें उसी प्रकार के नियमों का पालन करना चाहिए। 

-- श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी।

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