''उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः ॥ (हः भः विः 13/35, कात्यायन स्मृति, विष्णुधर्म, ब्रह्मवैवर्त्तादि शास्त्र-वाक्य)भगवान श्रीहरि प्रकृति की पहुँच से बाहर हैं, वे निर्गुण हैं।

हमारे इस शरीर, इस मन व इस दुनियावी बुद्धि की सहायता से उनके नज़दीक वास करना सम्भव नहीं है। दुनियाँ के सभी बद्ध जीव स्थूल व सूक्ष्म शरीरों की उपाधियों में फंसे हुए हैं। दुनियावी उपाधियों में फंसे जीव भला कैसे भगवान के समीप रह सकते हैं?

भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के पार्षद, श्रील रूप गोस्वामीपाद जी ने भगवान की आराधना के लिये 64 प्रकार के मुख्य भक्ति-अंगों का वर्णन किया है।
उनमें से एक भक्ति अंग है -- 'एकादशी-व्रत' का पालन।
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