किसी -किसी ॠषि ने बताया कि व्यक्ति तीन प्रकार से पाप-पुण्य करता है। शरीर से, मन से व वाणी से। किसी-किसी ने कहा कि शरीर से, इन्द्रियों से तथा मन से ।
आमतौर पर पुण्य निम्न प्रकार से किया जाता है।
न्याय, दया, सत्य, पवित्रता, मैत्री, सरलता और प्रीति ।
पाप हमेशा ही पुण्य का विरोधी होता है।
यह द्वेष, अन्याय, मिथ्या, चित्त-विभ्रम, निष्ठुरता, क्रूरता तथा लम्पटता, आदि के द्वारा होता है।
गौड़ीय वैष्णव जगत् के सातवें गोस्वामी श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने
श्रीचैतन्य शिक्षामृत में बताया है कि प्रधान - प्रधान पुण्य कार्य दस प्रकार से होते हैं - परोपकार, माता-पिता व गुरुजनों की सेवा, दान, अतिथि सत्कार, पवित्रता, महोत्सव, व्रत, गाय आदि पशुओं का पालन, संसार के लोगों की सुख-सुविधाओं को बढ़ाने के लिए कार्य करना और न्याय पूर्वक आचरण करना ।
गौड़ीय वैष्णव जगत् के सातवें गोस्वामी श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने
श्रीचैतन्य शिक्षामृत में बताया है कि प्रधान - प्रधान पुण्य कार्य दस प्रकार से होते हैं - परोपकार, माता-पिता व गुरुजनों की सेवा, दान, अतिथि सत्कार, पवित्रता, महोत्सव, व्रत, गाय आदि पशुओं का पालन, संसार के लोगों की सुख-सुविधाओं को बढ़ाने के लिए कार्य करना और न्याय पूर्वक आचरण करना ।





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