अपराध शब्द की व्युत्पत्ति करने से 'राधात् अर्थात् अराधनाम् अपगतः' अर्थात् आराधना से हटना है । वैष्णव के चरण में अपराध होने से भगवत् आराधना से हटना पड़ता है। भक्त वत्सल भगवान् अपने भक्तों के प्रति किसी भी अपराध को सहन नहीं करते हैं। वैष्णव की कृपा नहीं होने से गौरांग महाप्रभु जी की कृपा नहीं होती है।
भक्त की कृपा से भक्ति की प्राप्ति होती है। और वही भक्ति जो वैष्णव से प्राप्त होती है, भक्ति से वशीभूत कृष्ण की कृपा को प्राप्त कराती है।
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर इसी तत्व का निरूपण करते हुए श्रीचैतन्य भागवत में लिखते हैं --
वैष्णवेर कृपाय सेई पाई विश्वम्भर।
भक्ति बिना जप तप अकिन्चितकर॥ (चै भा मध्य 21/7)
वैष्णव की कृपा से ही भगवान् विश्वम्भर को प्राप्त किया जा सकता है। भक्ति के बिना जप, तप, इत्यादि जितने भी साधन हैं, प्रभु को प्राप्त करने में नगण्य हैं।
परम आराध्य 'श्रील प्रभुपाद' अपने भाष्य में लिखते हैं कि सेवान्मुख न हो के भगवन् नाम-जप और नाना प्रकार की तपस्या आदि सब व्यर्थ है। भगवान् के सेवकों की कृपा बिना किसी के हृदय में सेवोन्मुखता धर्म उन्मेषित नहीं हो सकता। यहाँ सेवान्मुखता धर्म को ही भक्ति कहा गया है। -- श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज जी।



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