जब आदिवासियों ने भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु को भगवान श्रीरामचन्द्र मान लिया………
त्रेतायुग में कपिपति बालि को एक समय कहीं से बड़े मीठे-मीठे सात ताल-फल मिले। वे उन्हें किसी जगह पर रखकर स्नान करने चले गए। सोचा - 'अभी स्नान से लौटकर इन फलों को खायेंगे।' किन्तु स्नान से लौटने पर उन्होंने देखा कि एक विषधर सर्प उन सात फलों को नष्ट कर चुका है। इस पर बालि को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने सर्प को अभिशाप दिया कि यह वृक्षयोनि लाभ करे। शाप के प्रभाव से सर्प उसी समय 'सप्तताल' वृक्षों के रूप में हो गया।
बालि के इस कार्य से सर्प-पिता बड़े दुःखी हुए और उन्होंने बालि को शाप दिया कि जो इन सात ताल-वृक्षों को एक बाण से बींध देगा, वह बालि का वध करेगा। भगवान श्रीरामचन्द्र ने 'सप्तताल' वृक्षों को एक बाण से बींधकर सुग्रीव को विश्वास दिलाया था कि वे बालि का वध करने में समर्थ हैं।
कलियुग में भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी जीवों का उद्धार करने के लिए दक्षिण भारत में भ्रमण करते समय 'सप्तताल' वृक्ष को देखकर प्रेम से गद्-गद हो गये और उनके आलिंगन करने के साथ-साथ वे वृक्ष अन्तर्धान हो गये। उस आश्चर्यजनक लीला को देखकर वहाँ के आदिवासियों ने श्रीचैतन्य महाप्रभु को श्रीरामचन्द्र माना था।
श्रीचैतन्य चरितामृत में इसका वर्णन है -- 'सप्तताल वृक्ष देखे कानन भीतर। अति वृद्ध, अति स्थूल, अति उच्चतर॥ सप्तताल देखि प्रभु आलिंगन कैल । सशरीरे सप्तताल अन्तर्धान हैल॥ शून्यस्थल देखि लोकेर हैल चमत्कार। लोके कहे ए संन्यासी-राम अवतार ॥ सशरीरे ताल गेल, श्रीवैकुण्ठ धाम। ऐछे शक्ति कार हय, बिना एक राम ॥
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