प्रेम का अर्थ है उपासना
(द्वारा: परमपूज्यपाद ॐ विष्णुपाद 108 श्रीश्रीमद्भक्तियालोक परमाद्वैति महाराज )
हम सभी में कहीं ना कहीं प्रेम करने की इच्छा होती है। हम सभी में एक अन्य इच्छा भी होती है कि हम स्वामी बनें। चूँकि हममें दोनों इच्छायें विराजमान रहती हैं, अतः काम नहीं बनता। क्योंकि अगर आप किसी से प्रेम करना चाहते हैं तो आपको अपने को उससे नीचे स्थित करना होगा। अन्यथा प्रेम का कोई अर्थ नहीं है। प्रेम का एक अर्थ है 'देना' व प्रेम का एक अर्थ उपासना भी है। आप उस व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकते अगर आप के मन में उसके लिये कुछ सम्मान ना हो अथवा आप उससे कुछ प्रभावित ना हों। अतः अगर आप यह सोचें कि मैं उससे प्रेम करता हूँ किन्तु वह मेरे अधीन है तो यह मान्य नहीं होगा। प्रेम इतना महान है कि महानतम भी उसके आगे बौना हो जाता है। यह कैसे सम्भव है? प्रेम के अद्भुत व्यापार से।
उदहारण के लिये, प्रधानमन्त्री का सहायक उससे मिलने जाता है किसी विशेष कार्य हेतु। द्वारपाल को सूचित करने पर उसे उत्तर मिलता है कि प्रधानमन्त्री जी अभी किसी को नहीं मिल सकते। सहायक के यह कहने पर की कार्य अति आवश्यक है तो भी वह द्वारपाल उसे कक्ष के भीतर जाने नहीं देता। अतः क्रुद्ध होकर सहायक द्वार को जोर से धक्का दे देता है। भीतर प्रविष्ट होने पर वह देखता है कि प्रधानमन्त्री घोड़ा बने हैं व उनका पौत्र उनकी स्वारी कर रहा है व कह रहा है, 'भाग घोड़े, भाग !'
एक विशाल देश का प्रधानमन्त्री अपने पौत्र के लिये घोड़ा बन गया है।
क्यों ? उत्तर है प्रेम । प्रेम आपको तुच्छ बनना सिखाता है। जिससे आप प्रेम करते हैं उसके लिये आप कुछ भी करने को त्यार रहते हैं। अगर कोई व्यक्ति अपना स्वमित्व जताता है तो वह प्रेम नहीं करता है। ऐसे व्यक्तियों के लिये प्रेम के द्वार हमेशा बन्द रहते हैं।
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