क्या है सनातन धर्म ?
(द्वारा: श्रीश्रीमद्भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज)

धर्म शब्द का अर्थ होता है 'स्वभाव'। जिस वस्तु क जो स्वभाव है, वही उसका धर्म है, वस्तुतः धर्म दो प्रकार का होता है - 1) नैमित्तिक धर्म 2) नित्य धर्म । उदाहरण के लिये जैसे पानी का स्वभाव होता है तरलता, किन्तु अधिक ठण्ड में वह बर्फ में परिवर्तित हो जाता है, फिर गर्मी प्राप्त होने पर पानी बन जाता है, तो पानी के बर्फ बनने में ठण्ड निमित्त हुयी, इसलिये बर्फ पानी का नैमित्तिक धर्म है और तरलता नित्य धर्म है। ठीक इसी प्रकार जीव के भी दो प्रकार के धर्म देखे जाते हैं। नैमित्तिक और नित्य। किन्तु इन्हें समझने से पहले ये जानना अत्यन्त आवश्यक है कि जीव का स्वरूप क्या है, क्योंकि जब स्वरूप क ज्ञान होगा तभी अच्छी तरह समझ में आ सकता है कि जीव का कौन सा धर्म नैमित्तिक और कौन सा धर्म नित्य है।
अब विचार किया जाये कि जीव स्वरूप में कौन है ? साधारणतः हम लोग शरीर को ही व्यक्ति समझते हैं लेकिन शरीर को व्यक्ति कहते नहीं हैं । हम प्रतिदिन इन शब्दों का प्रयोग करते हैं । जैसे मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी बुद्धि, इत्यादि। जबकि मैं शरीर, मैं मन, ऐसा कोई नहीं कहता - जिससे मालूम होता है कि मैं बोलने वाला, शरीर से अलग है और शरीर अलग। व्यवहारिक रूप से भी देखें तो भी कोई शरीर को व्यक्ति नहीं कहता । चाहे कोई नास्तिक देश हो या आस्तिक देश हो, सभी जगह जब तक शरीर में चेतन सत्ता रहती है तभी तक उसे व्यक्ति रूप से स्वीकार किया जाता है, चेतन सत्ता के चले जाने पर मुर्दा शरीर को कोई व्यक्ति नहीं कहता। इसलिये मुर्दा शरीर को जलाने से, पशु पक्षियों द्वारा खिलाने से, कहीं दण्ड नहीं मिलता और न कहीं मुर्दे को वोट डालने का ही अधिकार है। शरीर में जब चेतन सत्ता है जिसे कि शास्त्रिय भाषा में 'आत्मा' कहते हैं, उसे ही व्यक्ति कहा जाता है, शरीर को नहीं। सच्चिदानन्द भगवान की शक्ति का परमाणु, जीवात्मा जब तक शरीर में रहती है तभी तक उसे व्यक्ति कहते हैं । जिस सत्ता के रहने से मैं 'मैं' हूँ और जिस सत्ता के रहने से मैं 'मैं' नहीं हूँ, वही मेरी स्वरूप (अर्थात मैं आत्मा हूँ) । आत्मा नित्य है, शरीर नित्य नहीं है ।
अब जीव के स्वरूप के विषय में ये विचार किया जाये कि जीवात्मा कहाँ से आयी और इसका धर्म क्या है? इसके सम्बन्ध में श्रीगीता में एक स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीव मेरी शक्ति का अंश है जबकि एक अन्य स्थान पर कहते हैं कि भगवान का अंश होने के नाते जीव भी भगवान ही है जब कि यह बात नहीं है। यहाँ जीव को भगवान नहीं कहा गया है । श्रीगीता जी की दोनों बातों को लेना पड़ेगा । श्रीगीता के अनुसार जीव भगवान का अंश नहीं है, यह उनकी शक्ति का अंश है क्योंकि भगवान का अंश तो भगवान ही होता है। असीम का अंश भी असीम ही होता है। भगवान के अंश को स्वांश कहा जाता है । सभी अवतार श्रीकृष्ण के स्वांश हैं । किन्तु अस्सिम की शक्ति का अंश असीम नहीं होता जैसे सूर्य का अंश तो सूर्य होता है किन्तु उसकी रोशनी की किरण को सूर्य नहीं कहा जाता। सारी रोशनी को इकट्ठा करने से भी सूर्य नहीं होता है। सूर्य पृथ्वी से 14,00,000 गुणा बड़ा है । यदि उस सूर्य को रोशनी खिड़की से मेरे कमरे में आती है तो मैं यह नहीं कह सकता कि सूर्य अन्दर आ गया क्योंकि वह तो पूरी पृथ्वी से 14,00,000 गुणा बड़ा है । वह तो सूर्य की रोशनी अर्थात सूर्य की शक्ति का अंश है, सारि रश्मियों को इकट्ठा करने से भी सूर्य नहीं बनेगा। सूर्य से रोशनी होती है, रोशनी से सूर्य नहीं होता।
भगवान की अनन्त शक्तियाँ हैं - उनमें से श्रीगीता में दो शक्तियों 'परा' तथा 'अपरा' शक्ति के बारे में बताया गया है । परा शक्ति - जीवात्मा और अपरा शक्ति है - स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने इसे और भी स्पष्ट करके बताया है कि जीव भगवान की तटस्था शक्ति का अंश है, अणु चेतन है। जीव भगवान से है, भगवान के द्वारा है, इसलिये भगवान के लिये है। उदाहरण के लिये - जैसे हाथ की अंगुली को पूछा जाये कि तुम कौन हो और अंगुली कहे कि मैं आदमी हूँ और यदि अंगुली क एक फोटो खींच लिया जाये तो उसे देख्कर आदमी के बारे में गलत धारणा हो सकती है - क्योंकि आदमी तो ऐसा नहीं होता। उसी प्रकार यदि जीव को भगवान मानेंगे तो भगवान के प्रति गलत धारणा होगी। जिस प्रकार अंगुली शरीर का छोटा सा अंश है उसी प्रकार जीव भी भगवान की शक्ति का एक छोटा सा अंश है पूर्ण भगवान नहीं है ।
इसलिये भगवान नित्य हैं, भगवान की शक्ति नित्य है और शक्ति का अंश जीव भी नित्य है और आपस में इनका सम्बन्ध भी नित्य है और इनका धर्म भी नित्य है। इसी नित्य धर्म को कहते हैं, 'सनातन धर्म'। सनातन का अर्थ होता है जो पहले भी था, अभी भी है और बाद में भी रहेगा । किन्तु शरीर का धर्म सनातन धर्म नहीं है क्योंकि शरीर नाशवान है, मन-बुद्धि अंहकार से निर्मित सूक्ष्म शरीर भी अनित्य है, जब किसी की कामना-वासना समाप्त हो जाती है तो उसका सूक्ष्म शरीर भी ध्वंस हो जाता है। इसलिये नाशवान वस्तु का धर्म सनातन धर्म नहीं हो सकता । इनको नैमित्तिक धर्म कहते हैं।
नित्य आत्मा का धर्म ही सनातन धर्म है। सनातन धर्म सिर्फ़ भारत का ही नहीं अपितु अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों में जितने प्राणी हैं - सब का ही धर्म है । सार ये कि आत्मा नित्य है, शरीर नाशवान है। इसलिये शरीर सम्बन्धी सब धर्म नाशवान हैं और मात्र आत्मा का धर्म ही नित्य है । जीवात्मा भगवान की शक्ति का अंश है। शक्ति हमेशा शक्तिमान के अधीन रहती है, शक्तिमान की सेवा करती है । इसलिये भगवान की सेवा ही जीवात्म का सर्वोत्तम धर्म है। यही आत्म धर्म ही, भगवत धर्म, सनातन धर्म, व वैष्णव धर्म के नामों से कहा जाता है, यही जीव का स्वाभाविक धर्म है।
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