गुरुवार, 26 नवंबर 2020

मैं आत्मा - परमात्मा को नहीं मानता हूँ ।

एक बार श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी (गुरूजीवार्षिक धर्म सम्मेलन के उपलक्ष्य में जालंधर (पंजाब) शहर में गये। श्रील गुरुमहाराज जी वहां किसी डा, के घर में रुके हुए थे। बहुत सारे भक्तगण गुरूजी को मिलने वहां आया करते थे। एक बार आप सम्मेलन में शामिल होने के लिए जा ही रहे थे कि ३-४ लोग गुरूजी को मिलने के लिए आ गए। वे गुरूजी से मिलने के लिए समय मांगने लगे क्योंकि उन्हें उसी रात किसी अन्य स्थान पर जाना था। 


गुरूजी ने उन्हें किसी और समय पर आने के लिए कहा क्योंकि आपको सम्मेलन में जाने के लिए देरी हो रही थी। वे लोग प्रबंधक के परिचित थे और प्रबंधक ने कुछ मिनट उनको देने के लिए निवेदन किया और गुरूजी ने उनका निवेदन स्वीकार कर लिया | उन लोगों में से एक इन्कम टैक्स ऑफिसर श्रीमान पाण्डे भी थे। उन्होंने गुरूजी को कहा कि मैंने आपके बारे में बहुत पढ़ा है और मेरी कई धार्मिक जिज्ञासाएं हैं। मैं आत्मा को नहीं मानता हूँ, परमात्मा को नहीं मानता हूँ, जिसे आँखों से नहीं देखा जाता, हाथ से स्पर्श नहीं किया जाता, उसका अस्तित्व मैं स्वीकार नहीं करता । मैं २० प्रश्नों  का उत्तर लेने के लिए आपके पास आया हूँ । गुरूजी ने उन्हें बहुत विनम्रता पूर्वक समय की कमी के कारण अगले दिन आने के लिए कहा।

श्रीमान पाण्डे जी ने हृदय के भावों को व्यक्त करते हुए कहने लगे - स्वामी जी मैं बहुत अशांति में हूँ। मेरा मन बहुत अशांत हैं। चलते-चलते मुझे १ मिनट के किये कुछ ऐसा उपदेश दीजिये, कोई ऐसा मन्त्र सुना दीजिये जिससे मेरा मन शांत हो जाये। गुरूजी हँसते हँसते कहने लगे, 'पाण्डे साहिब! आप मुझे धोखा दे रहे हैं।'                                                                                                                                             
गुरूजी के वाक्य सुन कर पांडे साहिब हैरान हो गए तथा पुन: प्रार्थना करते हुए कहने लगे- स्वामी जी! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, सचमुच मेरा मन बहुत अशांत है। मैं  आपको कोई धोखा  नहीं दे रहा हूँ।

तात्पर्य समझाते  हुए गुरूजी ने कहा,'पांडे साहिब! क्या आपका मन है? कारण, आपने अभी थोड़ीदेर पहले कहा कि जिसे आप आँखों से नहीं देख पाते, हाथ से छू नहीं लेते, उसे आप नहीं मानते हैं,'क्या अपने कभी मन को आँखों से देखा है कि वे कैसा है, वह काले रंग का है या गोरे रंग का?'                                                                 

'आपने कभी क्या मन को हाथ से छू कर देखा है कि वह कठोर है या नरम? जब आपने अपने मन
को आँखों से देखा ही नहीं व हाथों से छुआ ही नहीं- तब आपका मन तो है ही नहीं तथा जिस मन का अस्तित्व ही नहीं है, उसकी शान्ति या अशांति का प्रश्न हो सकता है क्या?'

साथ-साथ पांडे साहिब ने उत्तर दिया- "स्वामी जी! आँखों से नहीं देखे जाने पर भी, हाथ से न छुये जाने पर भी चिन्तन रूपी क्रिया के द्वारा मन का अस्तित्व अनुभव किया जाता है।"                                                   
श्रील गुरुदेव जी ने कहा - 'देखिये, पांडे साहिब! आपने अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं ही दे दिया। आँखों से न दिखने पर भी, हाथ से स्पर्श न किये जा सकने पर भी मन के अस्तित्व को अनुभव किया जा सकता है - चिन्तन रूपी क्रिया के द्वारा ।'

'ठीक इसी प्रकार, मैं हमेशा जिन्दा रहना चाहता हूँ, ज्ञान चाहता हूँ व् आनंद चाहता हूँ - इन अनुभवों से मालूम पड़ता है कि मैं सच्चिदानन्दमय आत्म-तत्व हूँ तथा जो आत्मा के कारण हैं, वे परमात्मा हैं । अतः आत्मा व  परमात्मा को देखने की भी एक प्रकार की योग्यता है, उक्त योग्यता अर्जित होने से उनके अस्तित्व का अनुभव किया जाता है।'

'और फिर इन प्राकृत नाशवान इन्द्रियों का मूल्य ही क्या है? सामान्य से आघात से आँखों के नष्ट हो जाने पर तमाम जगत दिखना बंद हो जाता है, कानों के नष्ट हो जाने पर सारे शब्द सुनने बंद हो जाते हैं - इस प्रकार की नाशवान इन्द्रियों के प्रति निर्भर रहकर जो अनुभूति होती है, वह ही वास्तव है - इस प्रकार की बातें आपके समान विद्वान व्यक्ति यदि करे तो हम लोग कहाँ जायेंगे?'                                                                     

'स्वत: सिद्ध वस्तु के दर्शन की पद्धति, उनकी कृपा-आलोक के अतिरिक्त अन्य उपाय से सम्भव नहीं हो सकती। अर्थात स्वत: सिद्ध वस्तु परमात्मा को दर्शन करने का तरीका है - परमात्मा की कृपा । भगवान् की कृपा की किरण के द्वारा ही हम उन्हें जान सकते हैं व देख सकते हैं।'

(जिनकी दिव्य-अनुभूति होने से हमारे जीवन की अशांति हमेशा-हमेशा के लिए शांत हो जाएगी व हमारा जीवन आनंद से व सुख से परिपूर्ण हो जाएगा|)                                                           

- श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी।  

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