सोमवार, 18 मई 2020

परम शान्ति के उपाय - 2

भगवान के शक्त्यावेशावतार श्रीकृष्ण द्वैपायन वेद-व्यास जी ने एक लीला की। एक बार बड़े परेशान हो गये और अशान्त होकर सोचने लगे कि क्या करूँ मैं? मैंने समाज के लोगों का इतना कुछ मार्ग दर्शन दिया व उसके लिये लिखा। किन्तु मैं ही इतना परेशान हूँ तो मेरे बताये मार्ग पर चलने से लोग भी परेशान हो जायेंगे। क्या शान्ति मिलेगी उन्हें? 
(परेशानी में व्यक्ति अलग-अलग रहना पसन्द करता है। अपने को दुनिया से काट लेता है। आधुनिक युग में तो बच्चे कान में इयरफोन के तार लगाकर, अपने मोबाइल को ज़ोर से चला कर, कमरे में बंद हो जाते हैं। श्रीवेद-व्यास जी दुनिया से दूर हिमालय में जहाँ बर्फ पड़ी हुई है, गुफा में जा बैठे व सोचने लगे। (यह स्थान श्रीबद्रिकाश्रम से भी ऊपर है व व्यास गुफा के नाम से प्रसिद्ध है।))

व्यास जी अपने गुरू श्रील नारद गोस्वामी जी को याद करने लगे। नारद जी मन की गति से चलने वाले समर्थवान भक्त हैं, वहाँ प्रकट हो गये। नारद जी जब वहाँ आये तो श्रील व्यास मुनि ने उन्हें प्रणाम किया व हाथ जोड़ कर बैठ गये।

नारद जी ने पूछा - आपकी शरीर सम्बन्धी आत्मा, मन सम्बन्धी आत्मा कुशल है? (अर्थात् शारीरिक - मानसिक कष्ट तो नहीं?)

श्रीव्यास -- गुरूजी! मैं बहुत परेशान हूँ।

नारद जी -- क्या कभी किसी को सुख दिया?

(यही सूत्र है -- अगर हमने किसी को सुख दिया है, तो हमें भी सुख मिलेगा)

श्रीव्यास हाथ जोड़ कर बोले -- गुरूदेव! मैंने अपने जीवन को इसी में लगा दिया है। संसार के लोग कैसे सुखी होंगे, कैसे सन्तुष्ट होंगे, उनका मार्ग दर्शन ही तो किया है मैंने। संसार के जीव बहुत तरह की इच्छायें करते हैं। उनकी वो सब इच्छायें कैसे पूरी हो सकती हैं, उसका मार्ग उन्हें बताया कि कौन सा कर्म करने से कौन सा फल मिलेगा। व्यक्ति को पैस कैसे मिल सकता है, कैसे समृद्धि मिलेगी उसके लिए अर्थ-शास्त्र लिखे, स्वर्ग प्राप्ति की चाह वालों के लिए धर्म-शास्त्र लिखे।

इस प्रकार बड़े ही गर्व से श्रीव्यास मुनि ने सभी रचनाओं के नाम बताये।

श्रील नारद गोस्वामी जी बोले - यह आपने अच्छा नहीं किया?

श्रीव्यास जी  (हैरानी से) - अच्छा नहीं किया?

श्रील नारद गोस्वामी जी - संसार के जो लोग हैं, वे तो पहले ही कामना-वासना के दलदल में फंसे थे। आपने उन्हें कामना पूरी करने का रास्ता दिखा कर उन्हें और आगे धकेल दिया। उनमें फंसने के कारण वे और दुःखी हो जायेंगे, अतः उन्हें दुःख देने के कारण आपको दुःख ही तो मिलेगा।

श्रीव्यास जी अपने गुरूदेव का मुख ताकने लगे।

उन्होंने कहा कि मैंने तो जीवों को मोक्ष का मार्ग भी तो बताया है।

श्रील नारद जी ने कहा -- यह आपने और भी गलत किया।

श्रीव्यास हैरान रह गये कि मोक्ष तो सबसे श्रेष्ठ है, इसमें दुःख खत्म हो जाते हैं, लोगों के दुःख खत्म होने का रास्ता बताया है तो फिर मैं गलत कहाँ पर हूँ? इससे तो मुझे सुख मिलना चाहिये।
श्रीनारद जी ने कहा - आपने यह जो मोक्ष का रास्त दिखाया है, ब्रह्म-सायुज्य का रास्ता दिखाया है, इससे व्यक्ति को हमेशा-हमेशा के लिए आपने श्रीकृष्ण-प्रेम से वंचित कर दिया, श्रीकृष्ण-दर्शन से वंचित कर दिया। वो ज्योति-जोत में समा जायेगा, ब्रह्म में लीन हो जायेगा, तो आगे क्या कर पायेगा। वहीं रह जायेगा। संसार से तो निकल गया किन्तु ब्रह्म में लीन हो गया। परमात्मा सायुज्य अथवा ब्रह्म सायुज्य मिल गया। किन्तु जीव तो स्वरूप से भगवान का नित्य दास है। जब तक उसे भगवान की सेवा नहीं मिलेगी उसे सुख नहीं मिलेगा। बिना भगवद् सेवा के यह जीवात्मा सुखी नहीं रह सकती। अतः उसे दुःखी करने के कारण तुम्हें भी सुख प्राप्त नहीं हो रहा।

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