गुरुवार, 12 सितंबर 2019

उस वेश्या ने आपको लुभाने के लिये सारी चेष्टायें कीं किन्तु…

भगवान श्रीकृष्ण के एक महान भक्त थे -- श्रील हरिदास ठाकुर। उस समय श्रील हरिदास ठाकुर जी ने किशोर-अवस्था को पार कर यौवन में प्रवेश किया था।
बेनोपाल के जंगलों में श्रील हरिदास ठाकुर एक निर्जन स्थान में कुटिया में रहते व प्रतिदिन तुलसी सेवा व तीन लाख हरिनाम करते तथा भोजन करने के लिये ब्राह्मणों के घर जाते।
आपका भजन देखकर, सब आपका सम्मान करते थे और इसी कारण संकीर्तनपिता श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ने आपको अपने संकीर्तन आन्दोलन का आचार्य बनाया था। वहीं उस इलाके में रामचन्द्र खान नाम का एक ज़मींदार रहता था। उसे श्रील हरिदास जी की प्रतिष्ठा देखकर अच्छा नहीं लगा, और वो आपसे जलने लगा।

वह आपमें दोष ढूंढने लगा। किन्तु जब वो आपमें कोई दोष नहीं दिखा पाया तो उसने वेश्याओं को बुलाया ताकि वो उनके द्वारा श्रील हरिदास जी का चरित्र भ्रष्ट कर सके।

उसने, उनमें से सबसे सुन्दर लक्षहीरा को इस काम के लिये चुना। अपूर्व सुन्दरी लक्षहीरा ने तीन दिन में ही श्रील हरिदास के पतन का विश्वास दिलाया व अकले ही चल पड़ी। उसने कहा कि एक बार उसका आपसे संग हो जाये, तभी सिपाही ले जाने चाहिये, पकड़ने के लिये।

रात के समय सजधज कर वेश्या कुटिया में पहुँची। कुटिया के बाहर तुलसी जी को देखकर हिन्दु संस्कारवशतः तुलसी को प्रणाम कर श्रील हरिदास के पास अन्दर चली गयी। श्रील हरिदास ठाकुर को आकर्षित करने के लिये उसने जितने प्रकार की स्त्री सुलभ चेष्टायें होती हैं, सब कीं व ठाकुर से बहुत मीठे शब्दों में बोली - ठाकुर, तुम बहुत सुन्दर हो। युवा हो। आपको देख कौन नारी अपना धैर्य रख सकती है? मैं आप पर मोहित हूँ और आपके संग के लिये ही यहाँ आयी हूँ। अगर आपने मेरी इच्छा पूरी नहीं की, तो मैं आत्म-हत्या कर लूंगी।
श्रील हरिदास ठाकुर बोले - मैंने संख्या पूर्वक हरिनाम का व्रत शुरु किया है। व्रत पूरा होते ही मैं आपकी इच्छा पूरी करूँगा।
वेश्या वहीं बैठ गयी और व्रत पूरा होने का इंतज़ार करने लगी।
इधर हरिनाम करते करते सुबह हो गयी तो वेश्या थोड़ा घबरा कर वहाँ से चल पड़ी। वापिस आकर उसने रामचन्द्र खान को सारी बात बताई।

अगली रात को वेश्या फिर श्रील हरिदास जी की कुटिया में पहुँची। उसने तुलसी जी को प्रणाम किया और भीतर गयी। श्रील हरिदास जी ने उसे आये देख कहा - कल आपकी इच्छा मैं पूरी नहीं कर पाया, किन्तु हरिनाम संकीर्तन संख्या व्रत पूरा होते ही, आज अवश्य आपकी इच्छा पूर्ण कर दूँगा।
लक्षहीरा इस बार शान्त नहीं बैठी। श्रील हरिदास को आकर्षित करने के लिये उसने मुनियों का भी धैर्य तोड़ देने वाले स्त्री-भावों को प्रकट किया,
किन्तु श्रीलहरिदास ठाकुर जी निर्विकार भाव से हरिनाम करते रहे।

कुछ होता न देख, वो श्रील हरिदास ठाकुर के पास बैठ कर सारी रात आपके मुख से हरिनाम संकीर्तन सुनती रही, किन्तु बीच बीच में अपनी असफल चेष्टायें भी करती रही। 

रात्री समाप्त होते देख, वेश्या जब ज्यादा उतावली हो गयी तो श्रील हरिदास जी बोले - मैंने एक महीने में एक करोड़ हरिनाम लेने का व्रत लिया हुआ है, वह बस समाप्त ही होने वाला है। कल अवश्य ही व्रत पूरा हो जायेगा, तब मैं निश्चिन्त होकर आपका संग करूँगा।
वेश्या लौट गयी। तीसरी रात फिर आई, और कुटिया के बाहर तुलसी जी को प्रणाम कर, अन्दर चली गयी। वो श्रील हरिदास ठाकुर के पास बैठ कर, व्रत पूरा होने का इंतज़ार करने लगी। 

इतने दिन, लम्बे समय से हरिनाम सुनते-सुनते उसके मन का मैलापन दूर हो गया। उसे अपने कीये पर पश्चाताप होने लगा। 
सुबह होते ही उसने श्रील हरिदास ठाकुर के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी और रामचन्द्र खान के उद्देश्य के बारे में बता दिया।
श्रील हरिदास ठाकुर जी बोले - मैं तो उसी दिन यहाँ से चला जाता जिस दिन आप यहाँ आयीं थीं, केवल आपके कल्याण की चिन्ता के कारण मैंने तीन दिन प्रतीक्षा की।

वेश्या ने अपने कल्याण की प्रार्थना की तो श्रील हरिदास ठाकुर जी ने उसे कहा - पाप द्वारा जोड़ा गया सारा धन ब्राह्मणों को दान कर दें, एक कुटिया में निवास कर हरिनाम करें और तुलसी जी की सेवा करें। 

वेश्या ने गुरुदेव की आज्ञा के अनुसार सारा धन ब्रह्मणों को दान कर दिया, मस्तक मुण्डन करके, एक वस्त्र पहन कर, कुटिया में आ गयी और श्रील हरिदास ठाकुर जी ने उनसे कहा कि आप इस कुटिया में रहो, नित्यप्रति तुलसी जी की सेवा करो तथा श्रद्दा के साथ हरे कृष्ण महामन्त्र करो। इतना कहकर श्रील हरिदास ठाकुर उस स्थान से चले गये। 

श्रील हरिदास ठाकुर जी के आशीर्वाद से वह अपनी कठिन साधना के द्वारा प्रतिदिन श्रील हरिदास ठाकुर जी की ही तरह तीन लाख हरिनाम करने लगी। निरन्तर नाम करने व तुलसीजी की सेवा करने के फल से उसके अन्दर संसार के भोग-विलास से स्वभाविक वैराग्य उत्पन्न हो गया। यही नहीं भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से उसके हृदय में शुद्ध भगवद् प्रेम प्रकाशित हो गया।

श्रीचैतन्य चरितामृत में लिखा है कि लक्षहीरा वेश्या, एक ऐसी परम-वैष्णवी बन गयी कि बड़े-बड़े वैष्णव भी उनके दर्शन करने व उनसे हरिचर्चा के लिये उनके पास आया करते थे।

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