शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

श्रील भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज जी

आपका प्राकट्य ढाका शहर में अनुमानित 1306 बंगाब्द में हुआ था। आप एक सम्भ्रान्त परिवार से थे।

बचपन से ही आप दुनियावी वस्तुओं में रुचि नहीं रखते थे। अच्छे-अच्छे भोजन के प्रति आपकी स्वाभाविक उदासीनता थी। यहाँ तक कि बचपन में आप दूसरे बच्चों के साथ खेलने में भी ज्यादा रुचि नहीं रखते थे।

बचपन से ही आप गम्भीर प्रकृति के थे। साधु-सन्तों से मेलजोल तथा धार्मिक कार्यों में आपकी बचपन से ही रुचि  थी।

आपके माता-पिता ने आपको नाम दिया 'इन्दु-बाबू'। सन् 1912  के 
नवम्बर में हुये कार्तिक मास व्रत के समय जगद्गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने ढाका के प्रसिद्ध धनी श्रीसनातन दास जी के यहाँ बहुत दिन श्रीमद् भागवत् पर कथा की। फिर श्रील भक्ति प्रदीप तीर्थ महाराजजी ने भी बहुत दिन तक वहीं पर श्रीमद् भागवत् पाठ किया। उन दिनों आप उनकी कथा सुनने जाते रहे। वैष्णवों की संगति व उनसे हरिकथा श्रवण का ऐसा प्रभाव हुआ कि आप श्रील प्रभुपाद के चरणाश्रित हो गये।

दीक्षा के बाद आपका नाम हुआ -- श्रीगौरेन्दु ब्रह्मचारी। 1925 में आपको श्री प्रभुपाद जी ने संन्यास प्रदान किया व आपको नाम दिया -- त्रिदण्डी स्वामी भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज।


आपने अपना एक मठ श्रीधाम वृन्दावन में स्थापित किया था। जिसको आपने नाम दिया - 'श्रीविनोद वाणी गौड़ीय मठ'। संसार से जाने का आपको पूर्वाभास पहले ही हो गया था। इसलिये आपने इस धराधाम से जाने से पूर्व अपना मठ श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी को प्रदान कर दिया।

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