
अनन्त संहिता के अनुसार एक बार श्रीमती राधा जी, श्रीकृष्ण को ढूँढते-ढूँढते गंगा-यमुना के मध्यभाग में आईं। वहाँ पर आपने अपनी इच्छा से वृक्ष-लताओं से घिरा हुआ, अनेक कुंजों से शोभायमान, अति सुन्दर स्थान का निर्माण किया। आप वहीं पर बैठ कर वेणु बजाने लगीं व श्रीकृष्ण की याद में गीत गाने लगीं। श्रीकृष्ण आपके गान से मोहित होकर वहाँ प्रकट् हो गये। भगवान ने आपके भाव से प्रसन्न हो, कहा -- 'हे राधे ! तुम जैसी और मेरी प्रिया नहीं है। तुमने मेरे लिये जो यह स्थान बनाया है, यह उत्तम स्थान है । मैं तुम्हारे साथ रहकर इस स्थान को एक नया रूप दूँगा। मेरे भक्त इसे नव-वृन्दावन कहेंगे और विद्वान इसे नवद्वीप के नाम से जानेंगे। मेरी आज्ञा से सभी तीर्थ यहाँ वास करेंगे। यह स्थान वृन्दावन की ही तरह श्रेष्ठ होगा। इस स्थान पर एक बार आने मात्र से व्यक्ति को सभी तीर्थों में जाने का फल लाभ होगा, व साथ ही साथ हमारी भक्ति भी मिलेगी। यहाँं आकर जो व्यक्ति तुम्हारे साथ मेरी उपासना करेंगे, उन्हें निश्चय ही हमारा नित्य-सखी-भाव प्राप्त होगा।'
श्रीनवद्वीप धाम, गोलोक या वृन्दावन से भिन्न नहीं है। नौ द्वीप लेकर
इसकी रचना हुई है।

श्रीनवद्वीप धाम की जय !!!

श्रीनवद्वीप धाम परिक्रमा की जय !!!!
धामवासी भक्तवृन्द की जय !!!
परिक्रमाकारी भक्तवृन्द की जय !!!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें