रविवार, 28 जनवरी 2018

इतना भजन करते हैं, लेकिन भगवान सुनते ही नहीं। आखिर क्यों?

भगवान का भजन करते हुए हमारी भावना सही होनी चाहिए -- इसे समझाने के लिए पूज्यपाद निष्किंचन महाराजजी अपने गुरूदेव नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ 108 श्रीश्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज 'विष्णुपाद' जी के सुना एक उदाहरण सुनाया करते थे --

एक वकील साहब थे। उनकी वकालत बहुत ज्यादा अच्छी नहीं चलती थी। जैसे-तैसे वे अपने घर का गुज़ारा चला रहे थे। उनका नियम था कि वे रोज़ कोर्ट में जाने से पहले घर पर खाना खा लेते और अपनी पत्नी को खर्चे के लिये पैसे दे जाया करते थे। फिज़ूल खर्चा नहीं करते और कोर्ट से आने के बाद घर पर ही खाना खाते।
एक दिन वे अपनी पत्नी को कोर्ट जाते समय पैसे देना भूल गये। कोर्ट से वापस आकर उन्होंने डायनिंग टेबल पर देखा तो खाना नहीं लगा था।

उन्होंने अपनी पत्नी से इसका कारण पूछा तो उसने बड़े सीधे-सरल शब्दों
में कहा -- आज आप कोर्ट जाते समय पैसे नहीं दे गये तो मैं राशन नहीं ला पायी इसलिए आज घर पर खाना नहीं बना।

ओह! जल्दी-जल्दी में मैं भूल गया -- वकील साहब ने कहा।

अब क्या किया जाये? उनके घर में एक पुराना नौकर था। उसका नाम 'रामू' था। उन्होंने उसको आवाज़ लगाई -- रामू, ओ रामू!
जी हज़ूर! -- नौकर ने जवाब दिया।

ये लो पैसे! बाज़ार से चार रसगुल्ले लेकर आ -- वकील साहब ने कहा।

जी, अभी लाया, कहकर रामू घर से जाने लगा, कि तभी वकील साहब ने
बड़ा ज़ोर देकर रामू से कहा -- बढ़िया लाना, देखकर लाना।

जी हज़ूर! -- ऐसा कहकर वह रसोई से एक डिब्बा लेकर चला गया।

मिठाई की दुकान पर जाकर रामू ने चार रसगुल्ले लिये। डिब्बे में डलवाये और घर की तरफ चलने लगा। तभी उसे याद आया कि बाबूजी ने खा था कि बढ़िया लाना - देखकर लाना। तो बिना खाये मुझे कैसे पता लगेगा कि ये रसगुल्ले सचमुच बढ़िया हैं या नहीं।

इसलिए रामू ने वह डिब्बा खोला जिसमें 4 रसगुल्ले रखे थे। एक रसगुल्ला उसने मुँह में डाल लिया। रसगुल्ला सचमुच स्वादिष्ट था। उसे खाकर रामू का लोभ बढ़ गया।

खैर, उसने रसगुल्ले के डिब्बे का ढक्कन लगाया और घर की तरफ चल दिया। रास्ते में एक बात उसके दिमाग में आई कि मैं तीन रसगुल्ले बाबूजी को दूँगा, तीन तो अशुभ होता होते हैं। सो, उसने डिब्बा खोला तथा एक और रसगुल्ला निकाल कर खा लिया।

लोभी नौकर चलते-चलते फिर सोचता है कि हमारे बाबूजी बहुत अच्छे हैं।
घर में जब भी कुछ खाते हैं तो प्रसाद रूप से मुझे भी अवश्य ही देते हैं। बाद में भी तो वे देंगे ही, मैं पहले ही खा लेता हूँ।

सो वह एक और रसगुल्ला खा गया। घर पहुँच कर एक रसगुल्ले के साथ रामू ने वो डिब्बा बाबूजी की टेबल पर रख दिया। 

वकील साहब को भूख तो लग ही थी, सो उन्होंने डिब्बा खोला तो देखा कि उसमें तो एक ही रसगुल्ला है।

वकील - अरे रामू! मैंने तुम्हें चार रस्गुल्लों के लिए पूरे पैसे दिये थे?

रामू --  जी हज़ूर्।

कील - तो पूरे पैसों के तो चार रसगुल्ले आने चाहिए थे? 

रामू -- हज़ूर, चार ही आये थे।

वकील -- पर ये तो एक ही है।

रामू -- हज़ूर, आपने कहा था कि बढ़िया देख कर लाना।
तो?

बिना खाये अकिसे देखता कि ये बढ़िया है या नहीं। तो मैंने एक खा लिया।
चलो, ठीक है, तीन तो रहने चाहिए थे?
जी हज़ूर, तीन ही थे। बच्चों की दादी अक्सर बच्चों को बताती है कि तीन चीज़ें अपने शत्रु को भी नहीं देते। साहब, मैं तो आपका नमक खाता हूँ। आपको तीन कैसे दे सकता था? तो मैंणे एक रसगुल्ला और खा लिया।

अरे! तब दो तो होने ही चाहिये थे?

दो ही थे। पर मैंने देखा कि जब भी आप कुछ खाते हैं तो बाद में मेरे को
प्रसाद रूप से ज़रूर देते हैं। मैंने सोचा बाद में भी आपने देना है, चलो पहले ही खा लेते हैं। तो ऐसा सोचकर मैं एक रसगुल्ला और खा गया।

अरे रामू! तू तीन रसगुल्ले खा गया? कैसे खा गया?

रामू ने कटोरे से चौथा रसगुल्ला उठाया, पूरा-का-पूरा अपने मुँह में डाल दिया और थोड़ी देर बाद बोला -- ऐसे खा गया।

इस कहानी को सुनाते हुए पूज्यपाद निष्किंचन महाराज जी कहते हैं कि ये कपटता है, धूर्तता है। बहाने बना-बना क्र वह एक-एक करके चार रसगुल्ले खा गया। इसी प्रकार हम भजन करते हुए बाहर से भगवान के प्रति सेवा-भाव दिखायें और अन्दर बहुत तरह की इच्छाओं को, कामनाओं को, वासनाओं को जैसे-तैसे पूरा करने की कपटता हो, धूर्तता हो तो इससे मंगल नहीं होगा।

हमें निष्कपटता के साथ भगवान का भजन करना चाहिये। हमें ये याद
रखना चाहिये कि सर्वशक्तिमान भगवान अन्तर्यामी हैं -- वे मेरे दिल की प्रत्येक भावना को समझ रहे हैं।

शिक्षा -- हरिभजन में भावना सही होनी चाहिये।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें