शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

हार - जीत

समय के साथ-साथ हार-जीत का मेरा दृष्टिकोण कुछ बदल गया। युवावस्था के जोश में मैं सोचा करता था कि एक दिन पूरी दुनियाँ को मैं जीत लूँगा। धन और प्रसिद्धि बटोरूँगा। परन्तु काल के बीतने के साथ जीवन की वास्त्विकताओं ने उन सपनों को धूल में मिला दिया।  मुझे इसका कोई खेद नहीं है। अपितु, मैं काल का कृतज्ञ हूँ कि अब मैं धन, प्रसिद्धि आदि वस्तुओं को प्रप्पत करने में अपनी जीत नहीं मानता।

प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के कुछ लक्ष्य और कुछ मूल्य निर्धारित करता है। और उन लक्ष्यों और मूल्यों के आधार पर उसकी सफलता और असफलता निर्भर करती है। युवावस्था में मेरा लक्ष्य सांसारिक उपलब्दियों
को प्राप्त करना था। मेरे दिलोदिमाग पर आधुनिक जीवनशैली का भूत सवार था। अधिक से अधिक कमाओ, अधिक से अधिक भोग करो और सुखी रहो। परन्तु समय के साथ-साथ मैं समझने लगा कि चाहे धन हो या प्रसिद्धि, इस संसार की कोई भी वस्तु मुझे सुखी नहीं बना सकती। 

अधिकांश लोगों को यही लगता है कि हमारे पास जितनी अधिक वस्तुएँ होंगी हमारे सुख की सम्भावनाएँ उतनी बढ़ जायेंगी। वस्तुतः आज पूरा समाज़ इस भ्रम में खड़ा है।

यदि हम अपने मोबाइल फोन, कार, कपड़ों या अन्य किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट हो जायेंंगे तो फिर शीघ्र ही अधिकांश कम्पनियाँ और कारखाने ठप्प पड़ जायेंगे। परन्तु हमारा असन्तोष उनका सौभाग्य है। सुख की लालसा में नयी-नयी वस्तुओं के लिए हमारी भूख-प्यास बनी रहती है। और परिणाम होता है व्यापार जगत् की सोना-चाँदी।

परन्तु जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ मैं स्वयं से प्रश्न पूछने लगा कि क्या ये सब वस्तुएँ वास्तव में मुझे सुखी बना सकती हैं? 
महान् चीनी दार्शनिक लाओत्ज ने कहा है -- जिसकी इच्छाएँ सबसे कम होती हैं, उसके पास सबसे अधिक धन होता है। दूसरे शब्दों में हम सब धन, सम्पत्ति, सम्मान, ख्याति केवल सन्तोष और शान्ति के लिए प्राप्त करना चाहते हैं। हमें लगता है कि हमारी सम्पत्ति हमें सन्तोष देगी, हमें सुखी बनयेगी। परन्तु वैसा कभी नहीं होता।

इसीलिए श्रीमद् भगवद् गीता सलाह देती है कि जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों की माँगों को नियंत्रित कर सकता है केवल वह शान्त रह सकता है। ऐसा व्यक्ति नहीं जो सदैव अपनी इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने के लिए लालायित रहता है। शास्त्र बताते हैं कि जिस व्यक्ति का मन और इन्द्रियाँ उसके नियन्त्रण में नहीं हैं वह सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य प्राप्त करके भी सुखी नहीं
रह सकता।

श्रीमद् भगवद् गीता की इस शिक्षा ने मेरा दृष्टिकोण बदल दिया। अब मुझे बाहरी संसार को जीतने में अपनी जीत नहीं दिखायी देती। अब मैं अपने अन्तःकरण को जीतना चाहता हूँ। मुझे इससे बड़ी अन्य कोई विजय दिखाई नहीं देती।

-- श्रीकृष्णधर्म दास 

(श्रीकृष्णधर्म दास इंग्लैण्ड में रहते हैं और नियमित रूप से उनकी अनुभूतियाँ बीबीसी रेडियो पर प्रसारित होती हैं।)

-- श्रीभगवद् दर्शन पत्रिका से (जून 2016)

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