
श्रीनित्यानन्द प्रभु जी ने श्रीजीव गोस्वामी जी को बताया की यह जह्नुद्वीप, भद्रवन के नाम से भी जाना जाता है। इस स्थान पर जह्नुमुनि ने तपस्या करके श्रीगौरसुन्दर जी के सोने के विग्रह के दर्शन किये थे।
एक बार श्रीजह्नु मुनि सन्ध्या करने बैठे थे कि भगीरथी के वेग से मुनि की अर्चन-पूजा की सामग्री जल के प्रवाह में बह गयी। पूजा के सामान को बहते देखकर मुनि ने एक चुल्लू में गंगा जी का जल लिया और पी गये। राजा भगीरथ ने गंगा को पीछे-पीछे न आते देख, सोचा कि गंगा कहाँ चली गईं । जब उन्हें पता चला कि जह्नुमुनि जी ने गंगा का सब जल पी लिया है
तो वे बड़े बेचैन हो गये। तब उन्होंने मुनि वहाँ बैठ कर मुनि की कुछ दिन पूजा की और उन्हें सन्तुष्ट किया। सन्तुष्ट होकर मुनि ने अपनी जाँघ को चीरकर गंगा जी को बाहर किया। क्योंकि गंगा जी जह्नुमुनि की जाँघ को चीर कर बाहर आईं थीं, इसलिए गंगा जी को संसार में लोग 'जाह्नवी' नाम से पुकारते हैं।
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