एक बार हमारे पूर्व आचार्य श्रील गोपाल भट्टजी ने बहुत बड़ा महोत्सव मनाया जिससे एक बनियाँ का कुछ कर्ज़ा हो गया। धन के अभाव में आप यथा समय कर्ज़ नहीं चुका सके।
जब आप बहुत दिनों तक नहीं आये, बनियाँ ने निश्चय किया कि कल प्रातः काल आपके घर जाकर, जैसे-तैसे रुपया वसूल किया जाये।
उधर भगवान श्रीराधारमण जी ने विचार किया कि प्रातः काल तो श्रीभट्ट मेरी सेवा-पूजा, राग-भोगादि के आनन्द में मग्न रहते हैं। यदि वह बनियाँ उस समय आया तो मेरे भक्त के आनन्द में बाधा आयेगी।
अतः भगवान स्वयं श्रीगोपाल भट्ट जी का रूप धारण कर बनियाँ के घर जाकर उसके रुपयों का भुगतान कर आये।
संयोग से उस दिन किसी सेवक ने श्रील गोपाल भट्टजी को प्रचुर धनराशि भेंट की। अतः आपने सोचा कि कल बनियाँ का कर्ज़ा चुकता कर दूँगा।
दूसरे दिन जब श्रीभट्ट जी उस बनियाँ के घर गये और रुपया देने लगे तो उस बनियाँ ने कहा - महाराज! आप क्या कर रहे हैं? रुपया तो आप कल प्रातःकाल ही चुकता कर गये थे।
श्रीगोपाल भट्ट समझ गये कि ये सब उनके श्रीराधारमणजी की ही लीला है।
श्रीप्रभु कृपा विचार कर आपके नेत्र सजल हो आये।
जब आप बहुत दिनों तक नहीं आये, बनियाँ ने निश्चय किया कि कल प्रातः काल आपके घर जाकर, जैसे-तैसे रुपया वसूल किया जाये।
उधर भगवान श्रीराधारमण जी ने विचार किया कि प्रातः काल तो श्रीभट्ट मेरी सेवा-पूजा, राग-भोगादि के आनन्द में मग्न रहते हैं। यदि वह बनियाँ उस समय आया तो मेरे भक्त के आनन्द में बाधा आयेगी।
अतः भगवान स्वयं श्रीगोपाल भट्ट जी का रूप धारण कर बनियाँ के घर जाकर उसके रुपयों का भुगतान कर आये।
संयोग से उस दिन किसी सेवक ने श्रील गोपाल भट्टजी को प्रचुर धनराशि भेंट की। अतः आपने सोचा कि कल बनियाँ का कर्ज़ा चुकता कर दूँगा।
दूसरे दिन जब श्रीभट्ट जी उस बनियाँ के घर गये और रुपया देने लगे तो उस बनियाँ ने कहा - महाराज! आप क्या कर रहे हैं? रुपया तो आप कल प्रातःकाल ही चुकता कर गये थे।
श्रीगोपाल भट्ट समझ गये कि ये सब उनके श्रीराधारमणजी की ही लीला है।
श्रीप्रभु कृपा विचार कर आपके नेत्र सजल हो आये।
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