शनिवार, 12 दिसंबर 2015

आमार जीवन, सदा पापे रत,……

आमार जीवन, सदा पापे रत,
नाहिक पुण्येर लेश।
परेरे उद्वेग, दियाछी जे कत,
दियाछि जीवेरे क्लेश॥

अहो! मैं सारा जीवन पाप-कर्मों में ही लगा रहा, मैंने लेशमात्र भी पुण्य नहीं किया। न जाने कितने ही दूसरे जीवों को मैंने उद्वेग व क्लेश दिया।

निज सुख लागि', पापे नाहि डरि,
दयाहीन स्वार्थपर।
पर-सुखे दुःखी, सदा मिथ्या-भाषी,
परदुःख सुखकर॥

मैं ऐसा दयाहीन, स्वार्थी तथा मिथ्याभाषी हूँ कि अपने सुख के लिए पाप से भी नहीं डरता हूँ। दूसरे को सुखी देखकर मुझे ईर्ष्या होने लगती है और मैं दुःखी हो जाता हूँ एवं दूसरों को दुःखी देखकर मेरा हृदय आनन्द से भर जाता है।

अशेष कामना, हृदि माझे मोर,
क्रोधी दम्भपरायण।
मदमत्त सदा, विषये मोहित,
हिंसा गर्व विभूषण॥

मैं बड़ा ही क्रोधी एवं दाम्भिक हूँ। अनन्त प्रकार की सांसारिक कामनाओं से मेरा हृदय भरा हुआ है और मैं बड़ा ही क्रोधी व घमण्डी हूँ। मैं विषयों के मद में प्रमत्त हूँ तथा हिंसा और गर्व मेरे आभूषण स्वरूप हैं।

निद्रालस्य हत, सुकार्ये विरत,
अकार्ये उद्योगी आमि।
प्रतिष्ठा लागिया, शाठ्य आचरण,
लोभहत सदा कामी॥

निद्रा और आलस्यग्रस्त होने के कारण सत् कार्यों में मेरी लेशमात्र भी रुचि नहीं होती परन्तु दुष्कर्मों में मेरा मन स्वतः ही रम जाता है। मैं बहुत ही कामी हूँ। दूसरों से प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए मैं कपटतापूर्ण व्यवहार करता हूँ।

ए हेन दुर्जन, सज्जन वर्जित,
अपराधी निरन्तर।
शुभकार्य शून्य, सदानर्थमना,
नाना दुःखे जर जर॥

हे प्रभो! मैं ऐसा दुर्जन हूँ कि वैष्णवों का संग तो मैंने कभी किया ही नहीं अपितु निरन्तर मैं उनके चरणों में अपराध करता रहता हूँ। मेरा अनर्थग्रस्त मन शुभ कर्मों को त्यागकर पाप कर्मों में ही लगा रहता है, जिसके फलस्वरूप नाना प्रकार के दुःखों से जर्जरित हो रहा है।

वार्द्धक्ये एखन, उपायविहीन,
ता' ते दीन अकिञ्चन।
भकति विनोद, प्रभुर चरणे,
करे दुःख निवेदन॥
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी भगवान के श्रीचरणों में अपना दुःख निवेदन करते हुए कह रहे हैं कि मेरी हालत तो बड़ी दयनीय सी हो गयी है क्योंकि प्रभो! अब तो मेरी वृद्धावस्था आ गयी है और इससे बचने का कोई उपाय भी नहीं है।

(श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के सौजन्य से)

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