एक बार उत्तर भारत के तीर्थ भ्रमण के लिये गये। उस समय आप को गण्डकी नदी के किनारे पर एक शालग्राम शिला मिली। आप हमेशा उस शिला को व्रजेन्द्र-नन्दन श्रीकृष्ण के रूप में पूजा करते थे।
किसी-किसी के अनुसार श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामीजी बारह शालग्रामों की सेवा प्रति-दिन करते थे।
एक बार आपके मन में इच्छा हुई कि यदि श्रीशालग्राम, मूर्ति (श्रीविग्रह) के रूप में होते तो आप उनकी और भी अच्छी तरह से सेवा करते।
अन्तर्यामी भगवान तो अपने भक्त की बात पूरी करते ही हैं।
उन्हीं दिनों एक सेठ वहाँ आया हुआ था, और भगवान की प्रेरणा से आपको ठाकुरजी के लिये अनेक वस्त्र, आभूषण, इत्यादि दे गया।
आप सोचने लगे कि अगर शालग्रामजी श्रीमूर्ति (श्रीविग्रह) के रूप में
नहीं होंगे तो आप उन्हें इन वस्त्र-अलंकारों से कैसे सजा सकते हैं?
यही सोचते हुए रात को आपने शालग्राम जी को सुला दिया।
अगले दिन सुबह उठकर देखा तो बारह शालग्रामों के बीच, एक शालग्राम श्रीराधा-रमण के श्रीविग्रह (मूर्ति) के रूप में सामने थे।
आज भी वृन्दावन के श्रीराधा-रमण मन्दिर में उनकी नित्य सेवा होती है।
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