बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

क्यों त्यागा, शिव-शक्ति श्रीमती सती देवी ने अपना शरीर?

श्रीमद् भागवत् के अनुसार बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिये कि सभी प्रकार के दु:संग को छोड़ कर, अच्छे व्यक्तियों का संग करे।  

जगद्-गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी के अनुसार वैष्णव-अपराधी-असाधु की संगत तो सभी प्रकार से परित्याग करनी चाहिये। यहाँ
तक कि ऐसे व्यक्ति का संग भी नहीं करना चाहिये जो वैष्णवों की निन्दा करता हो।

वैष्णवी-शक्ति सती देवी ने अपने पति वैष्णवराज-शिव के विद्वेषी दक्ष को निर्भीक वाणी में कहा था कि आप श्रीनीलकंठ-शिव की निन्दा करने वाले हैं, इसलिए आपसे उत्पन्न हुए इस घृणित शरीर को मैं अब नहीं रख सकती, यदि भूल से कोई निन्दित वस्तु (विष, आदि) खा ली जाय, तो उसे वमन (उल्टी) करके निकाल देने से मनुष्य की शुद्धि बतायी जाती है। इसलिए मैं भी आपके शरीर से उत्पन्न इस कुत्सित शरीर को नष्ट कर देना चाहती हूँ। आम कुमानव हैं। महत् -पुरुषों के अप्रियकर्ता (भक्तों की निन्दा करने वाले) से जो जन्म मुझे मिला
उसे धिक्कार है। जिस समय श्रीशिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसी में 'दाक्षायणी' (दक्ष की पुत्री) के नाम से पुकारेंगे, उस हँसी को भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और खेद होगा। इसलिए उससे पहले ही मैं आपके अंग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीर को त्याग दूँगी।
इस प्रकार कठोर भर्त्सता सूचक वाक्य कहते-कहते सती देवी ने सबके सामने यज्ञस्थल में ही आपनी योग शक्ति के द्वारा अपने शरीर को त्याग दिया।

वैष्णव चरित्र सदा ही पवित्र होता है। उनकी कभी भी निन्दा नहीं करनी चाहिये।

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