मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

भक्ति के बिना कर्म, योग और ज्ञान निष्फल है।

द्वारा - श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी।                                                                                  भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने कहा है कि कर्म, अष्टांगयोग और ज्ञान को किन्हीं-किन्हीं शास्त्रों में साधन कहा गया है; इसलिये  अल्प बुद्धिवाले व्यक्ति इन शास्त्रों का तात्पर्य हृदयंगम न कर पाने के कारण उनको मुख्य अभिधेय या साधन मान बैठते हैं। अधिकार- भेद से मनुष्य अनेक प्रकार के हैं और प्रवृत-निवृत भेद से वे दो प्रकार के हैं। उन अधिकारों में स्थित व्यक्ति उससे ऊपर के स्थान को प्राप्त करने के लिये जो साधन करते हैं, वे साधन गौण मात्र हैं, मुख्य
साधन या अभिधेय नहीं। उन साधनों केवल एक सोपान आगे बढ़ा देना मात्र है। अतएव बृहत् तत्त्व की प्राप्ति में उन साधनों का स्थान अतीव तुच्छ या गौण है।                                                                                          कर्म, योग , ज्ञान और उन पंथों का उद्देश्य भक्ति न होने से उनमें स्वतन्त्र रूप से कोई भी फल देने की शक्ति नहीं होती।                                                                                                                                                                यदि उन-उन साधनों का चरम उद्देश्य कृष्ण-भक्ति हो, तो वे कुछ-कुछ गौण फल प्रदान करते हैं। केवल ज्ञान से मुक्ति नहीं होती। भक्ति के उद्देश्य से जो सम्बन्ध-ज्ञान होता है, उसका प्राथमिक फल ही मुक्ति है।                                                                           

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