मंगलवार, 21 मई 2013

मेरे दिल में कभी-कभी संशय होता है कि गौड़ीय वैष्णवों का श्री चरणाश्रय लेकर क्या मैंने कोई गलती की ?

श्री श्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज

श्रीगौड़ीय मठश्री चैतन्य मठ या श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के वैष्णवों का आश्रय लेकर भजन करने मेंविशेष रूप से प्रत्येकइन्द्रिय के साथ मठ का आश्रय लेकर लगता है कि मुझसे कुछ गलती हुई है,

क्योंकि 

ये लोग तो उदार नहीं हैइनके आश्रय में भजन करने से कई विधि-निषेधों के चक्करों में पड़ना पड़ता हैजबकि अन्य-अन्य सम्प्रदाओं का आश्रय लेनेसे यह सब झमेले वहाँ नहीं है। वहाँ ये वैष्णव-अपराधनाम-अपराध या धामापराध आदि की चिंता भी नहीं करनी पड़ती। उपास्य-निष्ठां की भी सिरदर्दी वहां नहीं है। इसके इलावा खाने-पीने की भी वहां कोई पाबंदी नहीं है।

मठ में तो वैष्णव-अपराध की बात कह-कहकर वे मेरी इन्द्रियों के कार्यों पर  मेरे इधर-उधर की बात पर लगाम लगाते रहते हैं। इनके पास रहने से मेरी स्वेछाचारिता हमेशा ही बाधित होती रहती है। मैं सोचता हूँ ऐसे संकुचित रहकरमठ मेंरहने की पेक्षा मठ से बहार रहना अच्छा है।

इसके इलावा, 

मैं सोचता हूँ कि मेरी ज़िन्दगी बड़ी सुविधाजनक हो जाएगी, यदि मैं ऐसे नियंत्रणकारी गुरुदेव के आश्रय में ना रहकर ऐसी जगह से दुबारा मन्त्र ले लूँजहाँ यह सब विधि-निषेधों का चक्कर ही ना हो। 

सचमुच कई बार तो में सोचता हूँ कि बढ़िया हो कि मैं गौड़ीय मठ के सारे संबंधों को छोड़कर कहीं औरचला जाऊं। परन्तु क्या करूँइस बेईज्जती के डर से कि लोग बोलेंगे कि इसने गुरु का त्याग कर दिया हैइसलिए मैं कहीं  जा भी नहीं पता हूँ।

श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के वैष्णव लोग श्री गौरांग महाप्रभु जी के प्रियतम् श्री रूपगोस्वामी पाद उनका आनुगत्य करनेवाले श्रील भक्तिविनोद ठाकुर  श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी के आश्रय में रहकर एकांत भाव से श्रीगौरांगदेव  जी की श्री राधा-कृष्ण की उपासना में नियोजित हैं। श्रीकृष्ण-प्रेम ही उनका साध्य है एवं ये उनकी साधना हैं। अप्रीति या अभक्ति श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के सेवकों की साधना हो ही नहीं सकती। प्रीति-विरोधिनी चेष्टा का श्री चैतन्य गौड़ीय मठादि में जरा सा भी आदर नहीं हैं।

(कभी सोचता हूँ कि गौड़ीय मठ के इलावा अन्य संस्थायों में दुनियादारी कि कई सुविधायें हैं, परन्तु उनकी साधना और साध्य, श्रीमद्भगवद्गीता तथा  श्रीमद्भागवतम् जैसे महान ग्रन्थों से मेल नहीं खाता)  जिस साधना में साध्य की प्राप्ति की कोई गारंटी नहीं है तथा जिस साधना से कोई सम्भावना ही नहीं है  कि वह जल्दी ही अभीष्ट वास्तु की प्राप्ति करवायेगीमेरी समझ में नहीं आता की ऐसी साधना केवल मात्र भीड़ इकट्ठा करवाने के इलावा क्या शुभ-उदय करवा पायेगी ?

जिनको अपना जीवन फ़िज़ूल में ही गवाना है तथा जो स्वेछाचारी होकर ही चलना चाहते हैंउन्हें सद्-गुरु का चरणाश्रयग्रहण करने की भला क्या जरूरत है

जो अपनी गलतियों को देख सकते हैंजो अपने अनर्थों का अनुभव कर सकते हैं तथा जो अपनी गलतियों को जल्दी से जल्दी सुधार कर  अपने अनर्थों को जल्दी से जल्दी हटा कर भगवान् के प्रेमानंदको प्राप्त करने के इच्छुक हैंकेवल वे ही भगवद्-प्रेमिक साधु-भक्तों के आश्रय में रहते हैं। साधु-भक्तों के या भगवान् केअनन्य-भक्तों के आश्रय में रहकर एवं उनके आदेशों  उपदेशों पर चलकर जो अपनी सारी स्वेछाचारिता को छोड़कर तथा अपनी इन्द्रियों को दमन करते हुए भगवान् की सेवा में नियोजित रहते हैवे ही सुख का अनुभव कर सकते है।

जो केवल बाहर से ही श्रीगुरुपदाश्रय का अभिनय करते हुए अपने को नियंत्रित करने का  अपने को सुधारने का सिर्फ ढोंग करते हैं तथा जो अपने पुराने कुसंस्कारों का  कुप्रवृतियों को संभालकर रखने के लिए आंतरिक रूप से यत्नशील हैं,ऐसे कपटियों का मंगल होना कोसों दूर की बात हैं। 

इसके इलावा गुरु पदाश्रय का ढोंग करने वालों काअपनी कुप्रवृतियों को संभालकर रखने वालों का तथा प्रतिष्ठा बटोरने की अभिलाषा से किसी प्रसिद्ध गुरु का शिष्य कहलवाकर  अपने बहुत से शिष्य बनाने वालों एवं अपने दुनियावी स्वार्थों को पूरा करवाने की भावना से शिष्य बनाने वाले घमंडी व्यक्तियों का कभी मंगल नहीं होता।

मैं बहुत परमार्थ की बात जानता हूँ या भगवद् भजन की बात मुझे समझाने की कोई जरुरत नहींमैं सब जानता हूँ --- ऐसा घमंड रखकर बाहरी रूप से श्री गुरुपाद्श्रय करना सिर्फ विडंबना हैकेवल मात्र लोगों को धोखा देना ही है । जबकि दूसरी ओर स्वयं शासित होने क लिये या नियंत्रित जीवन जीने  के लिए शिष्यत्व ग्रहण करना होता हैशुद्ध गौड़ीय वैष्णव सबकी अपेक्षा उदार  सर्वोत्तम मंगल प्रदान करने वाले होते हैं। उनके जीवन के आदर्शों की कोई दिशा यदि हम देखने की योग्यता प्राप्त कर सकें तो हमपरमोल्लासित होकर साधन-भजन में तत्पर हो सकते हैं। श्री कृष्ण के प्रेमी-भक्तभोगी या त्यागी नहीं होते हैं। वे कर्मी,ज्ञानी भी नहीं होते। वे तो केवल प्रेम-पूर्वक सब समय अपने आताध्य देव भगवान श्रीकृष्ण की सेवा करते रहते हैं।

दुनिया में विकर्मी लोग कर्मियों को बहुत समान  आदर देते हैंजबकि कर्मी ज्ञानियों के गुणगान करते हैं। भोगों में लिप्त कर्मी व्यक्तिज्ञानी व्यक्तियों के बाहरी वैराग्य को देख कर उनकी और आकर्षित तो हो सकता हैं परन्तु भगवद्-प्रेमा को चाहने वाला भक्त उपरोक्त कर्मी  ज्ञानी की ओर आकर्षित ना हो कर भगवद्-प्रेम के अनुकूल आचरण को देख कर ही आकर्षित होता है। भगवद्-प्रेम को प्राप्त करना जिनका लक्ष्य नहीं हैवे भक्त के आचरण में केवल भोग  त्याग को ही देख सकते हैं। ऐसेव्यक्ति बाहरी त्याग को देख कर  त्यागी व्यक्ति का आश्रय ग्रहण करके अपने को कुछ धन्य महसूस कर सकते हैं। परन्तु इस बाहरी त्याग से  इस धन्यता के एहसास से श्री कृष्ण प्रेम को प्राप्त करना संभव नहीं हैं। यदि भगवान् के स्वरूप में तात्विकी श्रद्धा या प्रीति ना हो तो भगवद भक्त का आचरण अभक्तों की दृष्टि में आकर्षणीय नहीं होता।

भगवान् के अनन्य भक्त के चरित्र मेंउसके क्रिया कलाप में सीधे सीधे हो या घुमा फिराकर होहर दृष्टि से श्री कृष्ण की प्रीति ही अनुशीलन हो रही होती है अर्थात् भगवान का अनन्य भक्त हर समय भगवान की प्रीति के लिये उनकी सेवा करता रहता है।  

अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञान - कर्माद्यनावृतम 
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा ।।
                                                        (..सि.)
श्रीरूप गोस्वामी द्वारा रचित श्रीभक्ति रसामृत सिन्धु ग्रन्थ का उपरोक्त ये श्लोक चिंतनीय है। श्रीकृष्ण-भक्त का श्रीकृष्ण की भक्तिके लिए मठ-स्थापना करनामंदिर का निर्माण करनाविषयी-व्यक्ति या राजपुरुषों के साथ मिलनाउनसे बातचीतकरना, महोत्सव आदि का आयोजन करना  अज्ञानी या श्रद्धालु लोगों को उपदेश देना आदि सभी कार्य शुद्ध भक्ति के अनुकूल हैं। यही नहीं भगवान् का घर या भगवान् के भक्त का घर बनवानामिस्त्रियों  मजदूरों के कार्यों की देखभाल करना या इनके लिए धन इकठा करनाबाजार जाना  बाजार से समान खरीदनायहाँ तक कि उसका भक्त  भगवान् की सेवा के लिए भिक्षा करने जैसे असम्माननीय निम्न स्तर के कार्य को करना  भी परम आदरणीयभक्ति-वर्धक  भगवद्-भक्ति को पोषणकरने वाला है।



''कुष्ठी-विप्रेर रमणी, पतिव्रता-शिरोमणि,
पति लागि कैल वैश्यार सेवा।
स्तम्भिल सूर्येर गति, जीयाइल मृत पति
तुष्ट कैल मुख्य तिन देवा ।।''
                                    (चै.च.अ.२०/५७)

ये प्रसंग यहाँ पर विचारणीय है। अपने पति की निष्कपट सेवा करने की भावना से की गयी वैश्या की सेवा ने भी पतिव्रता ब्राह्मणी की केवल शोभा ही नहीं बढ़ाई अपितु उसे दुनिया में पूज्य भी बना दिया व  ब्राह्मणी को भगवान की कृपा-पात्रा भी बनवा दिया। दूसरी ओर ब्राह्मणी का यह कार्य यदि उसके अपने इन्द्रिय तर्पण के लिए अथवा धर्म, अर्थ व कामादि के लिए ही होता तो उसके द्वारा किया सभी कुछ हरेक दृष्टि से धिक्कार देने योग्य होता। इसी प्रकार वैकुण्ठ वस्तु भगवद्-धाम, भक्त व भगवान् की निष्कपट सेवा के लिए मठ-मंदिर व कमरों का निर्माण करवाना, विषयी या राजपुरुषों से मिलना, महोत्सवादी का आयोजन करना व हरिनाम मन्त्रादि देने के सभी कार्य भगवद्-भक्ति को बढाने वाले, भगवान् की भक्ति को पोषण करने वाले तथा भग्वद-प्रेम को हृदय में प्रकट करवाने वाले होते हैं। हाँ, अपने इन्द्रियतर्पण , कनक-कामिनी व प्रतिष्ठा को बटोरने के लिए व धर्म-अर्थ कामादि के लिए ये सब कार्य ही बंधन के कारण बन जाते हैं। 

अपनी आसक्ति की वस्तु को छोड़ देने को ही दुनिया के लोग त्याग कहते हैं। परन्तु मान लिया जाए कि किसी वस्तु को खाने से किसी की बीमारी बढ़ रही है और वह उस वस्तु को खाना छोड़ दे तो क्या ये उसका त्याग कहलाएगा? किसी प्रकार का खाद्य खाने से यदि कोई बीमार पड़ रहा था तो इस कारण से यदि उस खाद्य पदार्थ को न खाकर उसकी जगह वह दूसरे प्रकार का खाद्य पदार्थ खाए तो इसके कोई उसके वैराग्य की महिमा थोड़े ही बढ़ जाती है ? कहने का मतलब है कि यदि कोई अपने शारीरिक व मानसिक सुख के लिए या अपने आराम के लिए अपने पिता, माता, रिश्तेदार, विषय, सम्पत्ति, नौकरी, व्यवसाय व दुनियावी कर्तव्य छोड़ दे तो ऐसे त्याग की भी भला कोई महिमा है, ऐसा मेरी समझ से तो बाहर है। हाँ, अपने दुनियावी सुखों को अथवा अपनी दुनियावी आसक्ति की वस्तुओं को यदि कोई पूर्ण वस्तु के सुख के लिए त्याग करे तो उसे ही वास्तविक त्याग कहा जाएगा। यदि कोई दुनियावी सुखों को व उसके बदले में धर्म, अर्थ काम व मोक्षादि अथवा कनक, कामिनी व प्रतिष्ठा को प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता तो उसके त्याग की गिनती वास्तविक त्याग में हो सकती है। अन्यथा, शास्त्रों के मुताबिक़ अपने वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों को त्यागना अधर्म कहलाता है। वेदों में वर्णित वर्णाश्रम धर्मों को या उसके कर्तव्यों को कोई तमाम कारणों के कारण व सर्वानंद प्रदान करने वाले भगवान श्री कृष्ण की प्रीति के लिए त्याग करे तो उसका ही ये कार्य अति सम्मानीय, प्रशंसनीय व सर्व जनहितकर होता है। पूर्ण वस्तु भगवान् की सेवा के लिए अपने  इन्द्रिय तर्पण की चेष्ठाओं को छोड़ना व भगवान की प्रसन्नता के लिए अपनी स्वेच्छाचारिता को एवं दुनियावी व स्वर्गीय सुखों को परित्याग करना ही बलशाली कार्य है। इस कार्य को ही महान कार्य कहा जा सकता है। भगवान् के लिए व भगवान श्रीहरि के एकान्तिक भक्तों के लिए अपनी स्वतंत्र इच्छा तक तो त्यागना ही श्रेष्ठ त्याग कहलाता है।
कहना ना होगा कि स्थूल वस्तुओं को त्यागने की अपेक्षा ऐसी मनोवृति को त्यागना या उसकी आहूति दे देना ही सर्वोत्तम त्याग है। ऐसे त्याग से तो सुख मिलता ही है बल्कि ऐसे त्याग से तमाम प्राणियों को भी सुख समृद्धि  की प्राप्ति होती है। इसलिए ऐसे महान त्याग की कोई तुलना नहीं है। इस से किसी भी चेतन-सत्ता को व उनके आश्रित-तत्व को लेश मात्र भी क्लेश नहीं हो सकता बल्कि ऐसे त्याग क्रिया तो सर्वत्र ही आनंद बढाने वाली, सर्वानन्ददायक और परम-आदरणीय होती है। कर्म मार्ग पर चलने वाले कर्मी व्यक्ति का त्याग व उसकी तपस्या उसको भविष्य में मिलने वाले इन्द्रिय सुखों की लालसा से होती हैं। यह त्याग व तपस्या संकीर्ण भावना से है। यह सभी के लिए सुख प्रदायक क्रिया नहीं है। इसी प्रकार ज्ञान मार्ग पर चलने वाले ज्ञानी का त्याग और तपस्या भी केवल मात्र अपने दुखों की निर्वृति की भावना से होती हैं; जबकि भगवद् भक्त का त्याग व उसकी तपस्या केवल मात्र श्रीहरि की प्रीति के लिए होती है। चूँकि भगवान् श्रीहरि सब कारणों के कारण है, अत: उनके लिए किया गया त्याग व उनके लिए की गयी तपस्या अपने व सभी के वास्तविक कल्याण के लिए होती है। 

(अत: गौड़ीय वैष्णव का श्रीचरणाश्रय ले कर मैंने कोई गलती या भूल तो की ही नहीं बल्कि ऐसा करके मैंने सर्वोत्तम मंगल की प्राप्ति के सौभाग्य को वरण किया है। मैं अति-अति भाग्यवान हूँ।)   

यही कारण है कि गौड़ीय वैष्णव लोग भगवान् श्रीहरि की प्रीति के लिए प्रतिकूल कार्यों का परित्याग कर देते है। इस साधना के द्वारा हरि भक्ति के अनुकूल भोग व त्याग दोनों का समादर हुआ है। वैसे ही भगवान् के भक्त लोग दुनियावी भोग व त्याग की ओर आकृष्ट नहीं होते, वे तो भगवद् प्रेम व भक्त-प्रेम की ओर बरबस ही खीचें चले जाते हैं। स्वतंत्र रूप से भोगों की इच्छा या त्याग की इच्छा उनमें नहीं होती है। युक्त वैराग्य ही उनकी साधना है। हरि भजन का रहस्य समझ ना आने के कारण ही व्यक्ति को भोगों की ओर या त्याग की ओर मोह पैदा होता है जो कि साधक के लिए भगवद्-प्रेम की प्राप्ति में बाधकस्वरूप है ।  जो मनुष्य जीवन में होने वाले परमार्थ के साधनों के संयोग की बात को समझ गए हैं ; वे इस जीवन के प्रत्येक मुहूर्त के मुल्य को अत्यधिक मूल्यवान समझ कर जीवन के किसी भी समय को परमार्थ साधना के अतिरिक्त इधर-उधर के फ़ालतू कार्य में व्यतीत करने को राजी नहीं होते हैं। वे जानते हैं  कि मनुष्य जीवन के इलावा अन्य जीवनों में परमार्थ की साधना का सौभाग्य व सुयोग नहीं होता इसलिए उन जीवनों के समय का अधिक मुल्य नहीं है। जिन्हें सुदुर्लभ मनुष्य जीवन के मुल्य का एहसास हो गया है तथा उसमें भी जिन्हें साधु-संग का सौभाग्य प्राप्त हो गया है या भगवद्-भजन में जिनकी श्रद्धा हो गयी है, वे अपने जीवन का एक क्षण भी श्रीकृष्ण की प्रीति के अनुकूल कार्य को करने व प्रतिकूल कार्यों का परित्याग करने में ना लगा कर व्यर्थ कैसे गवाँ सकते हैं? यही कारण है की गौड़ीय मठ के साधु हमेशा ही श्रीकृष्ण प्रेम के प्राप्ति के बाधक-स्वरूप असदाचारों को छोड़कर सदाचारों को ग्रहण करने के लिए उपदेश देते रहते हैं। वे कभी-भी ईर्ष्या  या मत्सरता को बढ़ावा नहीं देते। व्यक्ति के अन्दर ईर्ष्या   की भावना तो केवल मात्र भगवद्-प्रेम की विरोधिनी  चेष्टा मात्र ही है।

नित्यलीला प्रविष्ट  विष्णुपाद १०८ श्री श्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
अतएव यदि सचमुच श्रीकृष्ण प्रेम ही मेरा लक्ष्य हो, तो मैंने शुद्ध गौड़ीय वैष्णवों का श्रीचरणाश्रय ग्रहण करके कोई गलती नहीं की है। ये बात बिलकुल सत्य है कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष-कामी  होने से या कनक, कामिनी व प्रतिष्ठा के लिए उतावला  होने से श्रीचैतन्य गौड़ीय मठादि में या गौड़ीय वैष्णवों  से कोई इंधन नहीं मिलेगा। इन तमाम अनर्थों से मुक्त हो कर श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति के लिए ही मठादि में सहायता की जाती है । श्रीकृष्ण-प्रेम के कंगाल  ही श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ आदि का आश्रय लेकर व शुद्ध गौड़ीय वैष्णवों का चरणाश्रय ग्रहण करके सर्वोत्तम मंगल की प्राप्ति करने में समर्थ होते हैं । हमें पूर्ण विश्वास है कि श्रीकृष्ण प्रेम के कंगालों का ये आचरण ही उन्हें सर्वोच्च उदारता के आदर्श व शुद्ध वैराग्य के सबसे ऊँचे शिखर पर पहुंचा देगा व स्थापित कर देगा।
घोरतर अपराधी यदि ना हो तो देर-सवेर यथा समय सभी को भगवद प्रेम की प्राप्ति होगी, कोई भी इससे वंचित नहीं रहेगा। श्रील प्रभुपाद जी की कृपा से श्रीसारसस्वत गौड़ीय वैष्णव सारे  जगत में महामहिमान्वित तथा पूज्य होगें। आज श्रील प्रभुपाद जी की कृपा से श्रीसारस्वत गौड़ीय वैष्णव ही विश्व में परोपकार के सु-महान आदर्श को स्थापन करने में समर्थ है। श्रीचैतन्य गौड़ीय मठादि के व गौड़ीय वैष्णवों के श्रीचरणाश्रित सेवकों की अवश्य ही जय-जयकार होगी । अत: मैंने गौड़ीय वैष्णव का श्रीचरणाश्रय ले कर कोई गलती या भूल तो की ही नहीं बल्कि ऐसा करके मैंने सर्वोत्तम मंगल की प्राप्ति के सौभाग्य को वरण किया है। मैं अति-अति भाग्यवान हूँ। 

द्वारा: नित्यलीला प्रविष्ट  विष्णुपाद १०८ श्री श्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज

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