शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

और.......जगन्नाथ जी ......साथ चलने को तैयार हो गये।

 श्रीजगन्नाथ जी का एक धाम है, बंगाल में  --- चाकदह।

एक भक्त श्रील जगदीश पण्डित जी एक बार श्रीधाम जगन्नाथ पुरी गये। वे जगन्नाथ जी के आगे संकीर्तन करते, अपने संकीर्तन, कीर्तन, नृत्य के द्वारा जगन्नाथ जी को रिझाते। उनके आगे श्रीनाम महामन्त्र करते-करते। जगन्नाथ जी से ऐसा लगाव हो गया जगदीश पण्डित जी का, कि जब उन्हें वापिस आना था तब उन्हें ऐस लगा कि मैं वापिस कैसे जाऊँगा, जगन्नाथ जी के बिना कैसे रह पाऊँगा? ऐसा विरह उनके मन में आने लगा।

उन्हें लगने लगा कि मैं जगन्नाथ जी को छोड़ कर जा ही नहीं पाऊँगा। इस ख्याल से कि मुझे अब पुरी से लौटना है, वे रोने लगते। -- इसे ही वास्त्विक दर्शन कहते हैं।

भगवान के धाम से जाने कि हम सोचें तो हमारे हृदय में दर्द उत्पन्न हो, एक कसक सी उठे मन में, ज़ुदाई का गम हो, इसे ही विरह कहते हैं। धाम में गये और सोचा कि बहुत हो गया, अब घर चलते हैं, इस सोच को धाम दर्शन नहीं कहते। 

श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी ने श्रील जगदीश पण्डित जी का चरित्र लिखते हुए लिखा -- कितने लोग जगन्नाथ पुरी जाते हैं, जगन्नाथ जी के दर्शन करते हैं किन्तु वास्तव में कितने लोगों को यह विरह होता है? उन्होंने यह भी कहा कि कभी-कभी किसी-किसी का विरह देखा जाता है, ……किन्तु मेरा ऐसा मानना है कि जगन्नाथ पुरी से वापिस जाते हुए जिनके हृदय में सचमुच विरह-व्याकुलता आती है तो समझना होगा कि उन पर ही जगन्नाथ जी की यथार्थ कृपा वर्षित हुई है।

जगदीश पण्डित जी को 'भगवान को छोड़ कर' जाने का दर्द हो रहा था, उस दर्द को जगन्नाथ जी ने महसूस किया। जगन्नाथ जी ने उनसे कहा --- तुम चिन्ता न करो। मैं तुम्हारे साथ ही चलता हूँ। (जगन्नाथ जी को लगा कि ये मेरे बिना कैसे जायेगा। भक्त-वत्सल भगवान भक्त के लिए साथ चलने को तैयार हो गये।) 

भगवान अपने भक्त की हरेक इच्छा को पूरा करते हैं।

भक्त के हृदय में बहुत आनन्द हुआ यह सुनकर कि भगवान मेरे साथ जायेंगे। फिर सोचने लगे कि मैं इन्हें कैसे ले जाऊँगा?

ये उन दिनों की बाते हैं जब कार, ट्रक आदि नहीं होते थे। 

जगन्नाथ जी को अगर ले जाना होगा तो कन्धे पर ले जाना होगा या घोड़ा गाड़ी अथवा बैल गाड़ी से ले जा सकते हैं।

भक्त कि दुविधा को जानकर जगन्नाथ जी ने स्वयं ही हल निकाला। उन्होंने कहा -- तुम चिन्ता न करो।  एक कपड़े में मुझको लपेटना, गाँठ बाँध कर उसे एक लाठी से लटका लेना अपने कन्धे पर और मैं बिल्कुल हल्का हो जाऊँगा। बस इतना है कि रास्ते में मुझको नीचे नहीं रखना। जब कभी कोई ज़रूरी कार्य हो तो किसी को थमा देना, नीचे नहीं रखना। अगर मुझे कहीं नीचे रख दिया तो मैं वहीं पर रूक जाऊँगा।

जगदीश पण्डित जी ने जगन्नाथ जी के श्रीविग्रह को कपड़े में लपेटा, कन्धे पर रखी लाठी से कपड़े को बाँधा और पश्चिम बंगाल के लिए चल दिये, पुरी से। रास्ता लम्बा था, पैदल चलने लगे, पहुँचने में पाँच-छः महीने लगेंगे और शर्त यह है कि उन्हें जगन्नाथ जी को नीचे नहीं रखना है।

जब कभी विश्राम करना होता, कोई अन्य कार्य करना होता तो साथी ब्राह्मण के कन्धे पर उनका भार सौंप देते। उन्होंने जाना श्रीमायापुर में जहाँ पर उनका घर है। उनका परिवार भी वहीं है।

किन्तु जगन्नाथ जी कुछ और ही इच्छा थी। श्रीमायापुर से लगभग 50 किलोमीटर पहले ही  प्रद्युम्न नगर या चाकदह में जगन्नाथ जी की इच्छा हुई कि मैं यहीं पर रहूँ। जब भगीरथ जी गंगा जी को ला रहे थे, तब इसी स्थान पर भगीरथ जी के रथ का पहिया यहाँ पर थोड़ा धँस गया था। रथ का पहिया (चक्र) यहाँ धँसा था, इसलिए यहाँ का नाम हो गया चक्रदह। कालक्रम से अब वही नाम बदलते-बदलते चाकदह हो गया है।

कुछ ऐसी लीला हुई कि जगदीश जी ने ब्राह्मण के हाथ में जगन्नाथ जी को दिया हुआ था और जगन्नाथ जी अचानक भारी हो गये। इतने भारी कि वे संभाले नहीं गये। उन्होंने चीख-चीख कर जगदीश जी को आवाज़ भी लगाई किन्तु जगदीश जी शीघ्रता से आ नहीं पाये। स्नान आदि करके जगदीश जी जब तक वापिस आये, तब तक उन ब्राह्ममण ने जगन्नाथ जी को नीचे रख दिया था

आगे चलने को तैयार जगदीश जी ने जब जगन्नाथ जी को उठाने कि चेष्टा की तो जगन्नाथ जी उठे ही नहीं उन्हें याद आ गया कि जगन्नाथ जी ने कहा था कि मुझे नीचे नहीं रखना।  भक्त की सोच ऐसी होती है कि वो भगवान की इच्छा में ही प्रसन्न रहता है। 

जगदीश जी इस घटनाक्रम से विचलित नहीं हुए, परेशान नहीं हुए कि मैंने तो मायापुर जाना था इन्हें लेकर, ये यहीं पर रुक गये हैं! अब क्या करूँ? घर तो मेरा वहाँ मायापुर में है। 

उन्होंने सोचा कि कोई बात नहीं, भगवान की अगर यहीं रहने की इच्छा है तो यहीं पर रहा जाये। उन्होंने परिवार को वहीं बुला लिया और वहीं पर रहते हुए जगन्नाथ जी की सेवा करने लगे। 

यही घटना रावण के साथ भी हुई थी। रावण जब शिव जी को लेकर जा रहा था तो रास्ते में शिव जी विग्रह (लिंग) को जब नीचे रख दिया गया, ब्राह्मण के द्वारा तो रावण की सारी योजना ही धरी की धरी रह गई क्योंकि वो शिव जी को लंका में ले जाना चाहता था। शिव जी तो बैद्यनाथ में ही रुक गये। रावण ने पूरा ज़ोर लगाया शिवलिंग को उठाने के लिये किन्तु शिव जी जब उठे ही नहीं तो रावण को गुस्सा आ गया। 

गुस्से में उसने अपने आराध्य, जिनकी वो इतने दिनों से पूजा कर रहा था, जिनसे वो वरदान माँग रहा था, उन्हीं को गुस्से में उसने घूँसा मार दिया। 

देखो भक्त की सोच और अभक्त की सोच में कितना अन्तर होता है। 

भक्त भगवान की इच्छा में अपनी इच्छा को मिला लेता है जबकि अभक्त  adjust नहीं करता।



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